Thursday, December 2, 2010

आदमी और मशीन


'आल आउट' का दूरदर्शन पर प्रसारित विज्ञापन मेरे बच्चे को सच नहीं लगता था । उसने कभी इस मशीन को सजीव प्राणी की तरह मच्छरों को खाते नहीं देखा था । एक रात सोने से पहले उसने मुझसे पूछा- पापा जब मैं सो जाता हूँ तब यह मच्छर खाता है क्या ? अब मैं कैसे उसे बताऊँ कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद सो जाने पर नहीं,दिनदहाड़े बहुत कुछ खाते रहते हैं । दरअसल उस विज्ञापन में मच्छर केवल भनभना नहीं रहे हैं । वे बाकायदे एक गीत गा रहे हैं जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरोधी अक्सर गाते हैं- होंगे कामयाब---- । मच्छर गीत पूरा नहीं कर पाते । पैशाचिक हँसी हँसते हुए मशीन का दैत्य आखिरी शब्द 'विश्वास' बोलता है ।
दूरदर्शन पर जब अटल बिहारी बाजपेयी अपनी कवितायें नहीं पढ़ा करते थे तो साक्षरता संबंधी कुछ सरकारी विज्ञापनों में भी उल्लिखित गीत बजाया जाता था । दरअसल यह गीत पाल राबसन के एक अंग्रेजी गीत का हिंदी अनुवाद है । पाल राबसन और कोई नहीं दादा साहब फालके सम्मान प्राप्त भूपेन हजारिका के गुरु थे । हिंदी अनुवाद भी हिंदी कविता के एक वरिष्ठ कवि गिरिजा कुमार माथुर ने ने किया था । अब तो इसे मच्छर ही गाते हैं जिन्हें एक बहुराष्ट्रीय उत्पाद लील जाता है ।
याद आया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की हिंसा का यह बेशर्म प्रदर्शन पहली बार नहीं हो रहा । बरसों पहले गुड़िया बनाने वाली कंपनी बार्बी ने भी अपनी नकलों को दिल्ली की दुकानोंसे खरीदकर आई टी ओ की सड़क पर हाथी से कुचलवाया था और ऐसा करते हुए फोटो खिंचवाकर विभिन्न अखबारों में छपवाया था ।
यह तो समझ में आता है कि अखबार के पन्नों पर , दूरदर्शन पर प्रसारित इस विज्ञापन में हिंसा के प्रदर्शन से सरकार को गुरेज न हो । आखिर उसके विरोधी भी तो बरसों बरस यही गीत गाते रहे हैं और उन्हें खामोश कर देने की इच्छा सरकार अरसे से मन में सँजोए रही है । अब उसका काम ‘आल आउट’ ही कर दे रहा है तो क्या बुरा है लेकिन एक विश्व प्रसिद्ध कवि के प्रसिद्ध हिंदी अनुवाद के बेशर्म उपयोग की इजाजत हम क्यों दें!
जहाँ तक मशीन के सजीव होने की बात है इसे पहली बार चार्ली चैप्लिन ने पहचाना था । जिन्होंने उनकी फ़िल्म माडर्न टाइम्स देखी होगी वे आदमी के मशीन और मशीन के सजीव हो जाने की त्रासदी को जरूर समझते होंगे ।
चेखव ने भी अपने संस्मरणों में अपने नाना के यहाँ की थ्रेशिंग मशीन का जो वर्णन किया है वह भूमिकाओं के इसी परिवर्तन के बारे में है । उन्होंने देखा था कि पसीने में डूबे हुए किसान मशीनी ढंग से गेहूँ मशीन में डाल रहे हैं जबकि वह मशीन साँस लेती, फ़ुफ़कारती, भूसे से अनाज को अलग करती सजीव प्राणी की तरह लग रही थी । मशीनी सभ्यता के इस असर को मार्क्स ने भी पहचाना था । इसीलिये उन्होंने बाजार को एक ऐसी जगह कहा जहाँ वस्तुओं में सजीव संबंध बनते हैं जबकि मनुष्यों में पैसे कौड़ी के ।

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