Sunday, June 12, 2011

चंद्रशेखर के लिए


अंबेडकर, गांधी, लोहिया, जयप्रकाश की कौन बात करे विवेकानंद भी वहीं खड़े थे जहाँ वह हत्या हुई । स्वतंत्रता आंदोलन के शरीर तो शरीर आत्मा तक के ध्वंस पर वह हत्या हो रही थी । उसके बाद से अपना प्रेम और अपनी नफ़रत बहुत कीमती हो गये हैं । सही सही पहचान हो कि किसको देखकर बोला भी न जाय तो किसी को देखकर हृदय के उमड़ आने की क्षमता पैदा हो जाती है ।

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मौत हमारे जीवन में कई तरह से प्रवेश करती है । लंबी बीमारी के बाद बूढ़ों के क्रमशः ठंडे होते हाथ पाँव के जरिए । और कभी एक बच्चा है, उसकी गेंद कोलतार की सड़क के बीचोबीच पहुँच गयी । एकदम तने हुए धनुष के तीर की तरह वह छूटा । तभी बिजली की तेजी से आती हुई मारुती कार से टकराकर गुड्डे की तरह उछला और बस । मुँह से गाढ़े लाल रंग के पेंट की एक लकीर रिसने लगती है । कोई और हरकत नहीं । ऐसे भी । पता नहीं क्या होता है ठीक मौत के पहले- शायद एक अकल्पनीय बेचैनी और फिर एक अनंत काली चादर सी विश्रांति- पता नहीं । लेकिन मृत्यु एकदम अप्रत्याशित ढंग से आ जाय तो? पता नहीं । चिता पर लाश को डाल दीजिये । कपड़े भभक उठते हैं । रोहन डिसूजा का कुर्ता कि पिता की शर्ट? सब पहचान खत्म । कपड़ा खत्म । एक झोंका आग का और बाल चिरचिराकर स्वाहा । रोज कंघी से सँवारो । मारकंडेय सिंह के सुरक्षा कर्मियों ने इसी को पकड़कर हिलाया था तो तकिये पर गुच्छे की तरह गिरते थे । और झड़ने से बचाने के लिए दवा खरीदी । समाप्त । धीरे धीरे शरीर तथ्य हो जाता है । भावनायें अलग । फिर चिता से बाहर लटकता पाँव चट से टूटकर गिरनेवाला हो तो बाँस से उसे उल्टा तोड़कर फिर से चिता में फेंक दो । सूँ सूँ, सर टूटा- भड़ाक । लंबा इंतजार । धीरे धीरे एक आदमी भस्म हो जाता है ।

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यह भारतीय राष्ट्र की एकता थी जो स्टेनगन और सेल्फ़ लोडिंग राइफ़ल से पहचानी जाती थी । गोली चली सीवान में और आवाज दिल्ली में सुनाई पड़ी । ये अचानक बदन पर इतने धक्के क्यों लग रहे है? और हाथ स्वतः किसी सहारे के लिए उठ जाते हैं लेकिन चेतना लुप्त होती जा रही है । ये हो क्या रहा है? पता नहीं ।

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एक तथ्य के अतिरिक्त यह हत्या जनतंत्र की विफलता थी । किसी ने कहा है कि सबकी स्वतंत्रता की हद दूसरे की नाक है । इस जमाने में नाकें इतनी लंबी हो गई थीं कि जगह जगह बेवजह टकराने लगीं । बीच की जगह एकदम सिकुड़ गई और धार की तरह खून गिरने लगा, भेजा बिखरने लगा । यह खून जगह जगह कतरा कतरा गिरा था, तब भी बहुत बच गया था । धारा की तरह यहीं गिरा और जम गया । शायद यह मजनू का कटोरा था । इधर उधर किसी ने उसे गले लगाने की हिम्मत ही नहीं की । कल्पना ने अंततः हिम्मत की लेकिन जैसे हाथ काँप गया हो और सब कुछ खत्म । लेकिन खत्म कैसे? जिस देश में सभी अंतर्विरोध हत्या से ही हल हो रहे हों वहाँ अस्सी करोड़ रहते हैं लोग; और अभी तो आने वाले बच्चे भी हैं । उनकी फ़िक्र भी तो है ।

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