Friday, April 20, 2012

शब्द और चित्र

मैं अक्सर एक देश के बारे में

सोचता हूँ

जहाँ 63 फ़ीसदी लोगों के लिए

छपे हुए शब्द भी चित्र हैं

जब मैं देखता हूँ पत्रिकाओं के कवर पर

देश के दो बड़े लोगों के मुस्कराते हुए चित्र

और उसके नीचे पढ़ता हूँ

अनबन चल रही है

तब यह चिंता कुछ और जटिल हो जाती है

जब मैं पढ़ता हूँ भूख

तो मेरा देश एक खुले हुए

यातनागृह में बदल जाता है

उनके लिए जो देखते हैं भूख

दरअसल पढ़ने और देखने वालों

के बीच एक दूरी है

इसी दूरी को जब तुम कहते हो

विधाओं का फ़र्क तो

लगता है विधाएँ भी वर्ग सापेक्ष हैं

नहीं मेरे मित्र

जिन्होंने हृदय की पीड़ा को

कंठ की अभिव्यक्ति से जोड़ा है

जिनके हाथों का सृजन

दृष्टि को सुख देता है

संक्षेप में जो इंद्रियों को जोड़ते हैं

वे विधाओं को भी एक करेंगे

सोचो कि

अब मैं तुम्हारे सामने

शब्दों के माध्यम से एक चित्र फेंकता हूँ

घूरे आग की लौ और फूल की कली

की संरचना में क्या फ़र्क है

मित्र मेरे शब्द केवल चित्र नहीं हैं

चित्रों के लाखों लाखों चित्रों के

अनुभवों अनुभूतियों के

घनत्व से निकली हुई राशि ही शब्द हैं

और तब मैं देखता हूँ

जिनकी आँखों को तुमने चित्रों से

बढ़कर शब्दों पर नहीं आने दिया

उन लोगों ने पैरों को हाथों में बदल डाला

उनकी आँखों से निकली चिंगारियाँ

साजिश का महायंत्र जलाकर

शब्दों की ताकत पहचानने लगी हैं

पहाड़ पर बैठे हुए लोगों के

घपले और धकापेल

गाँव के सीवान की सीमा लाँघकर बढ़ रहे लोग

मुस्कुराहट से नहीं

रोज रोज के अनुभव से देखते हैं

चित्रों के बीज जो जमीन में दब गए

शब्दों के अँखुए फूलने लगे हैं

दरअसल मित्र मेरे इसी से डरते हो

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