Thursday, May 3, 2012

अजीम अंसारी का मुकदमा


                        
अजीम अंसारी का मुकदमा होने के लिए जरूरी नहीं कि कचहरी में कहीं उन्होंने मुकदमा दायर किया हो । उनकी औकात ही नहीं कि वे मुकदमा दायर करें । और फिर उनका मामला तो हाई कोर्ट का है, उसके नीचे कहीं सुनवाई नहीं हो सकती । अब राष्ट्रपति महोदय का कहना है कि अदालतें जुआघर हो गई हैं । जिसे ऊँचा दाँव खेलना हो वह वहाँ जाय, वरना छोटा मोटा आदमी तो 'हाथ झारि जैसे-----' । तब मैं क्यों यह कह रहा हूँ कि वह मुकदमा ही है । क्योंकि यह एक मुकदमे की तरह लड़ा जा रहा है । तरह तरह के पैंतरे, किसिम किसिम के तर्क, रोज रोज की उठापटक, कभी उनका पक्ष मजबूत तो कभी इनका पक्ष विजय के करीब । यकीन न हो रहा हो तो आकर देखिए । यह एक अखाड़ा है । एक तरफ़ डी एम साहब, ध्यान से कतरी हुई मूँछें, थोड़ी निकली तोंद, बाल खिचड़ी तेल चुपड़े, वैसे तो स्पोर्ट्स शू से लेकर चश्मा तक सब कुछ पहने रहते हैं लेकिन इस समय प्रोफ़ेशनल फ़ुटबाल दर्शकों की तरह गले में ड्रम लटकाए चेहरे पर चूना पोते एक पहलवान को दाद दिए जा रहे हैं । पहलवान ऐसा कमजोर है कि एक ही ढोल बजाने वाले से उसकी हिम्मत नहीं बढ़ रही है । रह रह कर पों निकल जाती है । उन्हीं की मदद के लिए दूसरे सज्जन भी नाच रहे हैं । नाचते हुए भी कुर्सी उनकी चूतड़ से अलग नहीं हो रही है । नाइटी पहनने वाली बीबी के पति और पाउडर पोतने वाले साले के जीजा, छोटी सी दुनिया के निकम्मे बादशाह माननीय एस डी एम साहब ने कल ही झाँट बनाई थी इसलिए टाँगों के बीच की खुजली को सार्वजनिक रूप से मिटाए जा रहे हैं । ये दोनों मिलकर जिस पहलवान को बाँस पर टाँग लेना चाह रहे हैं वे शरीर में हर कहीं से बस हड्डी हड्डी हैं । खुदा जाने लंगोट शर्म बचाने के लिए बाँधते हैं या आँत संभालने के लिए । दो बंदरों का स्वामी यह आदमी वैसे तो चौराहे पर खड़ा करके पँचलत्ती बोलने लायक है लेकिन इस समय प्रिंसिपल का पट्टा गले में बाँधे रहता है । लाल बालों वाला यह बंदर किसी अय्याश बुड्ढे की तरह कालेज के गेट से घुसा और एक कमरे में कुर्सी पर जा बैठा । कमरे के दरवाजे पर चिक एक और बुड्ढे ने लटकाई, उसके नाम की तख्ती दरवाजे के बाहर एस डी एम ने ठोंकी और प्रिंसिपल का पट्टा डी एम महोदय ने बाँधा । इसकी आदतें बड़ी अजीब हैं । स्त्री योनि की सुगंध इसके दिमाग में याद की तरह काबिज रहती है और जब न तब जीभ निकालकर यह लार टपकाता रहता है । अगर पेट की बात करिए तो बीस से ऊपर समोसे चुराकर खाता है, गंधाती हुई खिचड़ी भी चल जाती है लेकिन सफलता का एकमात्र मंत्र समझकर दाढ़ी रोज बनाता है । जो सज्जन परदे के पीछे खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं वे एक कुपित ब्राह्मण हैं । कल्पना करिए कि उनके हाथों में ब्रीफ़केस न होगा तो क्या होगा । उनकी हड्डी प्रिंसिपल साहब की प्लेट में डाल दी गयी है । हड्डी गयी कि जीवन गया । जाति एक ही होने से क्या होता है । भूख ज्यादा हो तो एक हड्डी के लिए झगड़ा तो होगा ही । कभी कभी परदा उठाकर झाँक लेते हैं कि स्टेज खाली हो तो उनकी बेफ़िक्र एंट्री हो । पता ही नहीं उन्हें कि जल्दी जल्दी में वे कपड़ा पहनना भूल गये हैं और परदा हटने पर लोग उन्हें लालच सहित देख ले रहे हैं । ये सब मिलकर जिस आदमी का शिकार कर रहे हैं उसी का नाम अजीम अंसारी है । कुपित ब्राह्मण को मरते वक्त परशुराम जी बाइसवीं बार का दायित्व सौंप गये थे । इसीलिए सदैव वे ब्रीफ़केस में चमड़े का एक परशु लेकर घूमते रहते हैं । जहाँ कोई अब्राह्मण देखते हैं उसे बेवजह इंकपैड से गीला कर ठप्पा लगाया करते हैं । उखड़ा आज तक किसी का कुछ नहीं । गुरू स्वर्ग में परेशान कि चेला क्या कर रहा है । चेले के साथ दिक्कत यह है कि निजी लोभ और गुरू के वचन में टकराव होने पर सहज मानवीय कमजोरी का शिकार हो जाता है ।
किस्सा कोताह यह कि गन्ना किसान डिग्री कालेज, पुवायाँ, शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश आजकल कत्लगाह बना हुआ है । लोग छिनकते हैं तो नाक से खून निकलता है, हस्तमैथुन करते हैं तो लिंग खून उगलता है, खाँसी जुकाम सबमें खून ही खून ! आँखों का क्या कहना, उनसे तो क्रोध और दुख दोनों ही स्थितियों में खून के छींटे उड़ते रहते हैं । इस बयान में कोई चटखारा नहीं पैदा हो रहा है तो उसका कारण यह है कि इस नाटक में कोई स्त्री पात्र नहीं है । वे पृष्ठभूमि में हैं- अपने पतियों के लिए बच्चे पैदा करती हुई, उनकी निराशा और परेशानी की चिड़चिड़ाहट को अपनी समझदारी और बदन की समूची कोमलता से सहलाती हुई, चिंतित, खूबसूरत और उदास, दूर अथवा पास । वैसे इसे इस जगह की सामाजिक स्थिति का प्रतिबिम्ब भी समझना चाहिए । तो इस कालेज में मेरा प्रवेश आज से चार साल पहले सितारों के एक अद्भुत संयोग का परिणाम था । कहने को तो यह उच्च शिक्षा का केंद्र है पर इसका प्रवेश द्वार काफ़ी नीचा है । जिसका भी सिर उससे टकरा जाता है उसका एडमिशन यहाँ हंड्रेड परसेंट श्योर है । अजीब था यह शहर कि लड़कियों को लड़कों से जितना दूर रखा जा सके उतना ही अच्छा माना जाता था । इस पर एक किस्सा याद आया । लीना फ़िलीपींस की महिला थीं, उनसे एक और फ़िलीपीनी अमांते ने दिल्ली का हाल देखकर पूछा कि क्या यहाँ होमोसेक्सुअलिटी का काफ़ी चलन है । उसने कहा- 'कह नहीं सकती लेकिन देखती तो मैं भी हूँ कि लड़के लड़कों से काफ़ी घुले मिले रहते हैं और लड़कियाँ लड़कियों से । लड़का लड़की कभी उतने करीब नहीं रहते ।' जब दिल्ली का यह हाल है तो पुवायाँ की तो खुदा खैर करे । एक सज्जन ने मुझसे कहा कि लोग कहते हैं मास्टर साहब अपनी बीबी के साथ घूमते हैं । हमें बात ही समझ में नहीं आई । पूछ तो क्या उनकी बीबियों के साथ घूमूँ । खैर उन्होंने बुरा न मानते हुए स्पष्ट किया कि यहाँ औरतें औरतों के साथ ही बाहर निकलती हैं । बहरहाल, डिग्री कालेज खुलने से यह हुआ कि लड़कियों की शादी की उमर बी ए करने तक के लिए बढ़ गयी । जो महाराज प्रिंसिपल का पदभार ग्रहण किये हुए थे उनकी आयु पैंसठ साल की थी । अजीम अंसारी के प्रवेश के लिए आपको अभी थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा । समूचा जीवन इसी कुर्सी के लिए मर्कट की नाईं नाचते फिरे थे और किस किसके सामने दाँत नहीं निपोरे थे । मिली भी तो रिटायर होने के बाद । उन्होंने अपने समूचे जीवन का सार एक हलफ़िया बयान में कुछ इस तरह व्यक्त किया : "निवेदन है कि मेरे लिए गर्व का विषय है कि मैं ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ हूँ और काशी जैसे पुनीत क्षेत्र का निवासी हूँ, इसलिए अपने खान पान, रहन सहन एवं व्यवहार से अपनी परंपराओं को सँजोए हुए हूँ और जिसे मैं किसी भी दशा में छोड़ने के लिए तैयार नहीं हूँ ।" कहिए कि ऐसे किसी आदमी को अगर सार्वजनिक जीवन में मुख्य पद निभाने के लिए छोड़ दिया जाय तो वह लोकतंत्र की क्या मारेगा । एक बार जब उन्होंने यह आदेश जारी किया कि लड़के और लड़कियों को अलग अलग पढ़ाया जायेगा तो लड़कों ने उन्हें एक काव्यात्मक उपहार दिया-
               सी टी बी टी पर करो सब हस्ताक्षर आज
               अपनी जय जयकार हो अपना ही हो राज
                                   सबको अलग पढ़ाओ । 
बहरहाल, उत्तर प्रदेश के डिग्री कालेजों में प्रबंध समिति नाम की एक चीज होती है । पैसा सरकार को देना है, सेवा शर्तें सरकार को तय करनी हैं, शैक्षिक मामलों में सभी निर्णय विश्वविद्यालय लेता है फिर भी गैर जरूरी अंग के बतौर प्रबंध समिति नाम कि यह चीज जिंदा है । इस कालेज की प्रबंध समिति के सारे पदाधिकारी सरकारी अफ़सर पदेन हैं । डी एम अध्यक्ष, सी डी ओ सचिव, एस डी एम संयुक्त सचिव । नेहरू की लिप्सा की ये एड्सग्रस्त संतानें वैसे ही शिक्षा के मामलात में कम दखलंदाजी नहीं करतीं, यहाँ तो स्थायी रूप से विराजमान हैं । चापलूसी पसंद अफ़सरों और बुढ़ौती की दबी कुचली इच्छाओं का जब संगम हुआ तो नियम, कानून, नैतिकता, सत्य सबकी चिन्दियाँ उड़ गयीं । जीवन में मेरा कभी इतने भ्रष्ट लोगों से पाला नहीं पड़ा था । क्लर्क मूलतः एल आई सी का एजेंट और प्रिंसिपल मुनीम । इस जोड़ी ने दो साल कालेज पर राज किया । तब तक प्रिंसिपल का भतीजा बी ए पास कर गया था । क्लर्क की कुर्सी पर उसे ले आने के लिए चपरासी के बतौर अजीम अंसारी नाम का कड़वा घूँट भी उन्हें निगलना पड़ा । वह समय एक षड़यंत्रकारी मस्तिष्क का सर्वोत्तम समय था । तब अगर ऐश्वर्या राय भी उनसे पूछती कि बोल बुड्ढे तुझे क्या दूँ तो वे कहते 'भतीजे की नौकरी' । इस मामले में वे औरतों से एकदम दूर थे । लोभ भी आदमी को कैसी कैसी खुशियों से महरूम कर देता है । समूचा कालेज ब्रीफ़केस में बंद रहता और बुड्ढा घुन्ने की तरह चुपचाप खुदा जाने किन कागजों पर दस्तखत करता रहता था । इस तरह ढाई तीन महीनों के अथक परिश्रम के बाद वह परिस्थिति को साध ले गया और बिना किसी विज्ञापन के अवैध तरीके से एक चयन समिति कागठन करके कालेज में चार कर्मचारियों की नियुक्ति की गयी । अब आप घटनाक्रम को दूसरे नजरिए से देखें । जब बेरोजगारी की भयावहता से छुटकारा पाने के लिए मैंने उच्च शिक्षा आयोग के क्लर्क को पाँच सौ रुपये घूस देकर जल्दी से अपना नियुक्ति आदेश निर्गत कराना चाहा और बदले में उसने किसी सहायता प्राप्त स्नातकोत्तर कालेज की इस कालेज में नियुक्ति का आदेश दिया तो मैंने पूछा- भइए ! ऐसा क्यो ? तो उसने कहा- जाइए । नया नया कालेज है, चार पाँच साल में प्रिंसिपल हो जाइएगा । तबसे हर क्षण यह नशा मेरे दिमाग पर सवार रहा है । प्रिंसिपल साहब ने मेरी इस कमजोरी को भाँप लिया और चार साल तक मुझे बेतरह खटाने में कामयाब रहे । वे भतीजे की नियुक्ति के बाद इस्तीफ़ा देकर गोल हो लिये । लेकिन सड़सठ साला दिमागी खिलाड़ी का गणित एकदम सही था । फिर जुलाई में आये । मेरी अनुपस्थिति में मेरी गाँड़ में खूँटा ठोंका और अगले दो साल और मौज में गुजारे । कुछ ऐसा संयोग घटित हुआ कि मेरी भी आत्मा जागी और डर तथा संकोच सहित जब मैंने एक लड़ाई की शुरुआत की तो उनके विश्वासघात का पता चला । फिर तो मैं हत्थे से उखड़ गया । इधर दो सालों तक सबके साथ अपने भतीजे को भी स्थायी कराने की नौटंकी करते करते प्रिंसिपल साहब ने धैर्य खो दिया और फिर अकेले भतीजे के लिए प्रयासरत हो गये । इसी मोड़ पर मेरे विक्षोभ और कर्मचारियों के असंतोष का मिलन हो गया और एक बार और प्रिंसिपल ने इस्तीफ़ा दिया । तब तक वे सत्तर के पास सरक चले थे ।
अब मैं आपसे भारतीय लोकतांत्रिक शासन के 'स्टील फ़्रेम' की परीक्षा करने का निवेदन करता हूँ । सारे सरकारी अधिकारियों ने उस कुपित ब्राह्मण का पक्ष लिया और मिलकर हथौड़ा मारा अजीम अंसारी के पेट पर । एकमात्र मुसलमान बहुतेरे अध्यापकों और कुछ छात्रों को भी खटक रहा था । इसलिए उसे कालेज से निकाला गया । बहरहाल, तकरीबन एक महीने की दाँव पेंच भरी लड़ाई के बाद अजीम फिर कालेज में आया । प्रिंसिपल गये लेकिन जाते जाते अपने एक प्रतिरूप को कुर्सी पर बिठा गये । पैदाइशी धूर्त, कुटिल, चुगलखोर और अनंत भूख वाले इस आदमी को आप कभी कुर्सी पर पैर लटकाए बैठते नहीं देखेंगे । हमेशा दोनों पैर ऊपर रखता है । मैंने साहस के नाम पर इस कालेज में सफ़ाई कर्मचारी के हाथ से पानी पी लिया था । उस गिलास को फेंक दिया गया था, सब लोग जग से पानी पिने लगे थे, कुछ लोग कालेज में पानी ही नहीं पीते थे । नये आदमी ने आते ही सभी अध्यापकों को अलग अलग गिलास दिये, उन गिलासों की रक्षा के लिए एक खानेदार आलमारी दी और आलमारी के सभी खानों में लगाने के लिए ताले दिये । सब लोग अपनी अपनी गिलासें लेकर यूँ चले मानो किसी विजयी सेना का झंडा ढोने वाले सैनिक हों । सबकी पवित्रता उन गिलासों में भरी हुई थी । फिर सबने अपनी गिलासों को खानों में निधि की तरह बंद किया । मैं अपलक इस शरक्षेप, इस रणकौशल को देखता रहा । कुछ लोग इंफ़ेक्शन न होने देने के लिए, कुछ लोग व्रत की पवित्रता बचाने के लिए और कुछ लोग मात्र सफ़ाई के लिए उन झंडों में ही लपेटकर पानी पीने लगे । दूसरा आदेश जारी हुआ कि उनके चैंबर (चैंबर न हो गया, रंडी का कोठा हो गया, पहरेदारी के लिए एक आदमी दरवाजे पर, सारंगिये भी तरह तरह के और फिर शौकीन लोग बुलाए जाने का इंतजार करते । बुलावा आने पर होठों की कोर पर मुस्कराते हुए मुजरा सुनने चल पड़ते ।) में कोई भी चप्पल, जूता पहनकर न हाजिर होगा । थोड़ा ना नुकुर, कुछ लोगों ने माना, कुछ ने नहीं । इस आदमी ने अजीम अंसारी को टहलाना शुरू किया और जिद्दी इतना कि अजीम अंसारी पत्र पर पत्र दिये जा रहे हैं, सबको दाबे पड़ा रहता है ।
अब अंत में मैं आप सबसे कुछ निवेदन करना चाहता हूँ । इन अधिकारियों का क्या यह कर्तव्य नहीं होता कि कानून के मुताबिक काम करें ? क्या इनकी मनमानी और अधिकार मद पर कोई अंकुश है ? आखिर इतने पापात्मा उच्च शिक्षा के नाम पर समाज और छात्रों में कौन से मूल्यों को जन्म देंगे ? इन्होंने एक सोसाइटी 'गन्ना कृषक विकास शिक्षा समिति' गठित कर रखी है जो इस कालेज को चलाती है । इसके कारनामों की जाँच कौन करेगा ? इन्होंने न्यूनतम से भी कम वेतन पर जो कर्मचारी नियुक्त किए हैं उनकी जवाबदेही किसकी होगी ? अजीम अंसारी आज भी सड़क पर भटक रहे हैं । उन्होंने डी एम साहब से पूछा है कि क्या जब वे आत्महत्या कर लेंगे तभी कानून और न्याय की जीत होगी । उन्हें कोई आरोप पत्र नहीं दिया गया, सफ़ाई का कोई मौका नहीं दिया गया, यहाँ तक कि निष्कासन अथवा निलंबन की कोई सूचना भी नहीं दी गई । बस हाजिरी नहीं लगवायेंगे, और अब तो उसी कतार में एक और कर्मचारी शामिल हो गया है । क्या यह उचित है ? इस आदमी ने एक आदेश निकाला है कि कोई भी चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी प्रिंसिपल के सामने कुर्सी पर नहीं बैठेगा । क्या यह आदमी के साथ आदमी जैसा व्यवहार है ? क्यों न इसके लिए उस आदमी को गिरफ़्तार कर समाज के लिए अवांछित घोषित कर दिया जाय ? यह घूमता फिरता प्लेग आखिर क्यों छुट्टा घूम रहा है ? मेरे एक साथी ने बताया कि विवेकानंद ने लिखा है कि भारत देश को ब्राह्मण रूपी सर्प ने डँस लिया है और यह जहर तभी उतरेगा जब सर्प आकर स्वयं अपना विष चूस ले । एक सलाह और दें । क्या उसे मैं मुकदमा दायर करने की सलाह दूँ जब हाई कोर्ट का वकील अपनी फ़ीस पाँच हजार माँग रहा है और उसके परिवार में दाने दाने की मारामारी है ? क्या वहाँ से उसे न्याय मिलने की सचमुच कोई उम्मीद है जहाँ सुप्रीम कोर्ट का चीफ़ जस्टिस खुद अपने हाई स्कूल के सर्टिफ़िकेट में हेरफ़ेर करने का आरोप झेल रहा है ?           

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