Friday, April 11, 2014

कवि रवीन्द्र की काव्य प्रेरणा की एक साहसी तलाश



                        
                                                                                              
रवींद्रनाथ ठाकुर भारतीय नवजागरण के सांस्कृतिक सूर्य थे उनके लेखन के परिमाण मात्र को देखने से ऐसा लगता है मानो वे जीवन में लगातार लिखते रहे थे सृजन का ऐसा निरंतर प्रवाह तमाम लोगों को अचरज में डाल देता रहा है बंगाल की मध्यवर्गीय सामाजिक संस्कृति और भाषा-साहित्य उनकी सर्वव्यापी उपस्थिति से निरंतर आप्लावित रहता आया है सभी आदर्शों की तरह उनकी प्रतिमा भी इस तरह से गढ़ी जाती रही है मानो वे हाड़-मांस के जीवित मनुष्य होकर कोई अतिमानवीय शक्ति रहे हों इस तरह के प्रतिमा-निर्माण की प्रतिक्रिया-स्वरूप बंगाल में ही तरह तरह से मूर्तिभंजन भी होता रहा है इस मूर्तिभंजन की चपेट में उनके साहित्य के साथ उनका व्यक्तिगत जीवन भी आता रहा है एक समय नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित युवकों ने बंगाल के प्रभावी संस्कृति  प्रवाह की आलोचना के क्रम में तमाम मूर्तियों के साथ रवींद्रनाथ की मूर्तियां भी तोड़ी थीं लेकिन उसेभद्रलोकआभिजात्य की साहसिक आलोचना ही समझा गया इधर उनकी आलोचना की एक और धारा विकसित हुई है जिसने उत्तर आधुनिकता के साथ मनोविज्ञान का झोल बनाकर उनके वैयक्तिक जीवन, खासकर स्त्रियों के साथ उनके संबंधों की छानबीन में रुचि ली है और इस तरह मूर्ति भंजन का चटखारेदार रास्ता निकाला है      
रंगनाथ तिवारी लिखित और राधाकृष्ण से 2013 में प्रकाशित उपन्यासउत्तरायणको पढ़ते हुए लगता है कि लेखक केवल इस किस्म के साहित्य से सुपरिचित है बल्कि अनेकश: भ्रम होता है कि यह मौलिक उपन्यास होकर किसी बांग्ला उपन्यास का रचनात्मक अनुनाद है । मसलन भाभी के लिए बांग्ला मेंबौठानशब्द चलता है और इसमेंका उच्चारणअउकी तरह करने से ही उसमें निहितबहूका ह लोप होकर बनने वाले मूल शब्दबउठानका भान होता है । अगर तिवारी जी ने मूल के प्रति आग्रह निभाने की जगह उसके हिंदी अनुवादभाभीसे काम चलाया होता तो पाठकों को ज्यादा सहजता से समझ में आता । इसी में नूतन या मेज जैसे विशेषण भी उन्होंने लगाए हैं जिसके चलते उलझन और बढ़ जाती है । इसकी जगह वे नई भाभी या मंझली भाभी लिखते तो सुबोध होता जो नूतन और मेज के हिंदी अर्थ होते हैं । हिंदी में एक देशइटलीका यही उच्चारण चलता है जबकि बांग्ला में इसेइटालीबोलते हैं । तिवारी जी ने इस देश का नाम लिखते हुए बांग्ला उच्चारण का अनुकरण किया है । इससे लेखक की विषय वस्तु यानी रवींद्रनाथ ठाकुर की लेखन की प्रेरणा का माहौल तो बनता है लेकिन हिंदी पाठक के लिए अर्थ ग्रहण मुश्किल हो जाता है ।
खुद तिवारी जी महाराष्ट्र के हैं इसलिए हिंदी शब्दों के वे रूप भी खूब प्रयुक्त हुए हैं जो मराठी उच्चारण के अनुरूप हैं । मसलन ज पर थोड़ा भी जोर देना हो तो मराठी लोग उसे झ की तरह लिखेंगे/बोलेंगे । इसका व्यवहार भी तिवारी जी ने प्रचुरता से किया है । रवींद्रनाथ की चित्रकला के प्रसंग में किसी फ़्रांसिसी लेख का उन्होंने हिंदी अनुवाद किया है-‘रियालिझम, नैच्युरलीझम, इम्प्रेशियानिझम, एक्सप्रेशियानिझम, सिम्बासिनिझम, इमेजिझम, डाटिझम, क्यूबिझम, डाडाइझम, सररियालिझम इन सब वादों के बाद जो बचती है वह है श्री रवींद्रनाथ की कला और उनका कला विचार---इन सभी संज्ञा रूपों का हिंदी अनुवाद संभव था क्योंकि इन कला आंदोलनों के हिंदी प्रतिशब्द सहज उपलब्ध हैं । मराठी और बांग्ला के इस घालमेल को स्पष्ट करने के लिए तिवारी जी ने इस तथ्य का उल्लेख किया है कि रवींद्रनाथ के बड़े भाई सोलापुर में न्यायाधीश रहे थे और उस दौरान रवींद्रनाथ दो बार सोलापुर आए भी थे । फिर इस मेल को और भी पक्का करने के लिए देउस्कर, जो शिवाजी के साथ बंगाल आए मराठियों में से थे, के ग्रंथ देशेर कथा के लिए रवींद्रनाथ लिखित दीर्घ काव्यशिवाजीरदीक्षाका उल्लेख और श्री के के नामक एक ऐसे पात्र का सृजन किया गया है जो लेखक के प्रतिनिधि जैसा है । इस तरह लेखक ने उपन्यास की भाषिक विशेषता के लिए औचित्य का वातावरण बनाया है ।
उपन्यास की भाषिक विशेषता की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद हम विषय वस्तु की प्रस्तुति पर बात शुरू कर सकते हैं लेकिन उसके पहले शीर्षक के बारे में । उपन्यास का शीर्षकउत्तरायणमें श्लेष है और यह विषय वस्तु को अच्छी तरह से व्यंजित भी करता है । जिस घर में अंतिम दिनों में रवींद्रनाथ ठाकुर रहे उसका नाम तोउत्तरायणथा ही, भीष्म द्वारा अपनी मृत्यु के लिए सूर्य के उत्तरायण होने का चुनाव भी इस शीर्षक से व्यंजित होता है । संक्षेप में यह कि रवींद्रनाथ के अंतिम दिन इस उपन्यास की विषय वस्तु हैं । किसी कवि के जीवन पर शायद यह पहला हिंदी उपन्यास है । रवींद्रनाथ की कविता का समूचा वातावरण इस उपन्यास में झंकृत होता रहता है । घटनाएं बहुत कम मानो आप किसी चूहेदानी के भीतर के समृद्ध जीवन की झांकी ले रहे हों । बाहरी जीवन सिर्फ़ प्रेरक रहता है, असली जीवन तो मनोजगत की हलचल है । पात्र भी कम ही । खुद कवि, श्रीनिकेतन के मुखिया एल्महर्स्ट, अर्जेंटिना प्रवास की परिचिता वित्तोरिया ओकांपो जिन्हें कवि ने विजया नाम दिया था तथा विदेश यात्राओं में संपर्क में आए लोग और विश्व भारती के निवासी ही प्रमुख रूप से वर्तमान के पात्र हैं । शेष उतने ही महत्वपूर्ण पात्र कवि की स्मृति में उभरते रहते हैं और सिद्ध करते हैं कि मनुष्य के जीवन में महज उसका वर्तमान नहीं वरन उसका अतीत भी एक हद तक निर्णायक भूमिका निभाता है ।
चूंकि उपन्यास का विषय एक कवि की काव्य प्रेरणा है और उपन्यास का कलेवर इसके बावजूद काफी मोटा, तकरीबन चार सौ पृष्ठ, है इसलिए रवींद्र की कविताओं और चिट्ठियों के उद्धरण भी बहुत सारे हैं जो एक हद तक वातावरण का निर्माण तो करते ही हैं, उपन्यास की साहसिक विषय वस्तु को प्रामाणिकता भी प्रदान करते हैं । उपन्यास की विषय वस्तु के लिहाज से यह बेहद नयी बात है क्योंकि उपन्यास आम तौर पर घटना प्रवाह पर आधारित होते हैं । इसमें घटना की मौजूदगी बहुत कम है इसीलिए उपर्युक्त तकनीक लेखक को अपनानी पड़ी होगी । असल में उपन्यास में रवींद्रनाथ की कविता की मुख्य प्रेरणा विभिन्न स्त्रियों के साथ उनके संबंधों में तलाशने की कोशिश की गई है । इन संबंधों की सीमा का सवाल रहस्य के घेरे में है और उनकी भूमिका प्रेरणा प्रदान करने तक ही सीमित रखी गई है जो उचित ही है । उपन्यास का आरंभ ही अर्जेंटिना के लिए निकले गुरुदेव की तबीयत पानी के जहाज में अचानक खराब होने से होती है जब बेहोशी के आलम में उन्हें कादंबरी भाभी के साथ बिताया हुआ समय शुरू के अस्सी पृष्ठों तक याद आता है । इन्हीं भाभी को वे प्रेमपूर्वक नूतन बौठान और हेकाटी कहते थे । पहले ही हमने बताया कि नूतन बौठान का मतलब और कुछ नहीं नई भाभी होता है । उपन्यासकार का संकेत है कि इन्हें ही अपनी कविताओं में रवींद्रनाथ ने नलिनी कहा है । गीत उद्धृत किया हैशुन नोलिनी खोलो गो आँखि। यहीं रवि बाबू प्रेम के महत्व पर एक आत्मालाप जैसा भी प्रस्तुत करते हैं- ‘---चराचर में प्रेम व्याप्त है- झरनों में, नदियों में, सागर की लहरों और आकाश के नीले विस्तार में, पहाड़ियों की चोटियों और वनश्री के निबिड़ अंधकार से किरण बनकर उगती है और ज्योति बनकर सर्वत्र व्याप्त हो जाती है, वह प्रीति ही तो है ! प्रेम जीवन की शक्ति है, उसका अभाव ही मृत्यु है । और मृत्यु है चरम मुक्ति का वरण । उसी में शाश्वत अस्तित्व की अवस्थिति है । मनुष्य जीवन के तात्कालिक अस्तित्व की सार्थक परिणति है मृत्यु ।इससे आपको रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता में निहित दार्शनिकता का अनुमान होता है जो भारतीय दर्शन के औपनिषदिक चिंतन से आच्छादित है ।
रवींद्रनाथ के पिता महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर थे जो अपने विदेह स्वभाव के कारण ही महर्षि कहलाए थे । ये राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्राह्मो समाज के सक्रिय सदस्य थे और अपने पुत्र को उन्होंने ही बौद्धिक दीक्षा दी थी । उपन्यास का पूर्व दीप्ति से संबंधित यह अंश रवींद्रनाथ और कादंबरी के बीच मधुर छेड़छाड़ और बाद में लंदन चले जाने के बाद एक दूसरे की याद के प्रसंगों से भरा हुआ है । इस तरह की याद स्वाभाविक रूप से सीधी रेखा की तरह नहीं होती इसीलिए इसके चित्रण में भी रैखिकता की जगह विशिष्ट क्षणों की भासमान उपस्थिति है । इसी में एक क्षण ऐसा है जिसमें रवींद्रनाथ कपड़े बदल रही भाभी के कमरे में खटखटाए बिना घुस जाते हैं और डांट खाते हैं । भाभी और भाई चंद्रनगर चले गए । भाभी की अनुपस्थिति से दुखी रवींद्रनाथ बीमार पड़ गए । पिता ने उन्हें चंद्रनगर भेजा । भाई से भाभी खुश नहीं रहती थीं । चंद्रनगर में आत्मघात की कोशिश की । किसी तरह बच गईं । तबीयत संभलने के बाद महारास का आयोजन हुआ जिसमें राधा की भूमिका भाभी ने और कृष्ण की भूमिका रवींद्रनाथ ने निभाई । महारास के अंत में राधा के मुख में आधा चबाया हुआ तांबूल जब कृष्ण बने रवींद्रनाथ ने दाला तो भाभी बेहोश हो गईं । रवींद्रनाथ के संपर्क में आने से एक तरह का झटका लगने की बात उपन्यास में एकाधिक बार आई है और उपन्यास के कलेवर को कमजोर करती है । रवींद्रनाथ की शक्ति का रहस्यीकरण करने से लेखक कुछ भी साबित नहीं कर सकता । उसे तो कवि की मनुष्यता पर ही अपना जोर बनाए रखना चाहिए था । महारास वाला पूरा प्रसंग ही सभी पात्रों के मानवेतर व्यक्तित्व को व्यर्थ उभारता और थोड़ा नकली आध्यात्मिकता का मुलम्मा पूरे उपन्यास पर चढ़ाता है ।रवि बंसी बजाता तो कादंबरी जहाँ कहीं हो हाथ का काम छोड़कर दौड़ती हुई उसके पास पहुँच जाती । कभी पद्मा नदी की रमण रेती पर, कभी वृक्षों के झुरमुट में तो कभी मीनार के ऊपर के कमरे में । रवि बाँसुरी बजाता, कादंबरी उसके चारों ओर घूम-घूमकर नाचती और ज्योतिदा वायलिन पर दोनों का साथ करते । सँपेरा बीन बजाता है तो साँप क्यों डोलता है ? क्या वह मंत्र-कीलित होता है ? वही अवस्था तीनों की हो गई थी । व्यक्ति की पृथगात्मकता समाप्त हो गई थी- तीनों को महारास ने अपने क्रोड में ले लिया था ।आखिर इस तरह की बातों का अर्थ ही क्या है ? इस संबंध में रहस्य तब पैदा होता है जब पाठक को पता चलता है कि कादंबरी की मृत्यु जहर खाने से हो गई है ।
इसके बाद उपन्यास वर्तमान में आता है और रवींद्रनाथ से साक्षात्कार के लिए आमादा दो महिलाओं से हमारा परिचय होता है जिनमें से एक वित्तोरिया ओकाम्पो हैं जिन्हें बाद में रवींद्रनाथ विजया नाम देते हैं । ओकाम्पो भी रवींद्रनाथ की कविताओं को पढ़कर उनसे प्रेम करने लगी थी । रवींद्रनाथ को जाना पेरू था लेकिन तबीयत की खराबी की वजह से उन्हें ठहरने के लिए कोई जगह चाहिए थी । उसने एक विला का इंतजाम किया और उसका किराया चुकाने के अपना हीरे का ताज बेच दिया । उनके आराम के लिए आर्म चेयर दिया है । रवींद्रनाथ चाहते हैं वित्तोरिया विश्व भारती आए । उधर रविबाबू के साथ रहने वाले एल्महर्स्ट भी वित्तोरिया की ओर आकर्षित होते हैं लेकिन उनके शारीरिक आकर्षण को वित्तोरिया ठुकरा देती है । वित्तोरिया रविबाबू की बातचीत स्थानीय लोगों से करवाती है । इस दरमियान रविबाबू निरंतर कविताएं लिखते रहते हैं । रविंद्रनाथ-वित्तोरिया-लियोनार्ड के त्रिकोण में भी उपन्यास काफी पृष्ठ लगाता है । उसके बाद बहुत देर तक रविबाबू की स्थानीय लोगों से बतचीत है जिसमें रवींद्रनाथ की चिर परिचित शैली में रूपकों की बरसात है जिसके बारे में वे कहते हैंलियोनार्द, मैं न तो तुम्हारे लिए बोल रहा था और न उनके लिए- मैं तो बोल रहा था अपने लिए, यह आत्मालाप था- मोनोलाग ।रविबाबू की दक्षिण अमेरिका की यह यात्रा दस्तावेजों के मुताबिक 1924 में हुई थी । उपन्यास वहाँ से लेकर उनकी मृत्यु यानी 1941 तक अर्थात जीवन के आखिरी सत्रह सालों की कहानी है ।
रविबाबू ने वित्तोरिया को बुला तो लिया था लेकिनगुरुदेव सोच रहे थे- सचमुच वित्तोरिया अगर शांतिनिकेतन में रहने के लिए आ गई तो क्या होगा ?’ जिन लोगों के बारे में रविबाबू सोचते हैं उन्हीं के बहाने हमारा परिचय इसी समय उपन्यासकार रविबाबू से जुड़ी हुई एक और स्त्री से कराता है । रूपनारायण के विशाल पात्र में तैरते रविबाबू और उनकी दोनों टाँगों के बीच मछली सी तैरकर ऊपर उठती षोडशी इंदिरा- ठाकुर वंश के सर्वोत्तम की अभिव्यक्ति इंदिरा मेंसाकार हुई थी ।यहाँ भी रहस्य की जगह निकालते हुए उपन्यासकार ने लिखा ‘---जब जब उसके विवाह की बात चलती रविबाबू बात को बातों बातों में उड़ा देते ।विवाह हुआ तो रविबाबू के एक प्रशंसक के साथ फिर भीइंदिरा रविबाबू का ऐसा सपना जो दिन में भी साकार होकर उनके चारों ओर अपनी गंध बिखेरकर उनकी अंतरात्मा को उत्फुल्ल कर जाता ।इसके अलावाऔर प्रतिमा ? चाहे मुँह से कुछ ना कहे पर आँखें ? उन आँखों का सामना कैसे किया जाएगा ? लेकिन रानू ? वह चुप नहीं रहेगी- पता नहीं क्या कुछ कह जाए ? उसे समझना क्या आसान होगा ? रोने लगेगी तो उसके आँसुओं को झेलना क्या संभव हो सकेगा ?’ वित्तोरिया के साथ रविबाबू के संपर्क के बारे में थोड़ा स्पष्ट करते हुए उपन्यासकार ने शारीरिक आयाम भी दिखाए हैं ।उसे इतनी नजदीक पाकर स्वाभाविक रूप से रविबाबू के अनजाने ही उनका दायाँ हाथ आगे बढ़ा और उसने विजया के स्तन को मुट्ठी में भर लिया ।इसका परिणाम यह हुआ- ‘रविबाबू के काव्य, नाटक, उपन्यास तथा साहित्य के विविध अंगों का प्रवाह जो फूट पड़ा वह सब इस एक क्षण की स्थिर भंगिमा का प्रतिफलन है ।सृजन के बारे में यह रुख थोड़ा चौंकाने वाला तो है ही, किसी स्त्री को नजदीक पाकर पुरुष का दायाँ हाथस्वाभाविकरूप से स्तनों को पकड़े, यह भी अस्वाभाविक बात है ।
रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्य से परिचित लोग उनकी दार्शनिक-रूपकात्मक शैली से भी परिचित हैं । उपन्यासकार ने विभिन्न प्रसंगों में उनके मुख से इस तरह के विचार जाहिर कराए हैं । मसलन जब वे अभी अर्जेंटिना में थे तभी कहीं से निमंत्रण मिला । व्याख्यान के लिए संभावित विषय की चर्चा करते हुए वे संगीत के बारे में कहते हैंसृजन सामूहिक नहीं होता- वह तो व्यक्ति की आत्मा का हुंकार है- संगीत आत्मा का अनुरणन है- वह आविष्कृत होता है तब गायक, वादक और श्रोता तीनों चमत्कृत होते हैं- यह चमत्कृत होना एक सा होता है या त्रिविध ? तीनों के लिए अलग अलग ? गायक गा रहा है, राग का विलंबित में विस्तार हो रहा है तब गायक के इस सृजन कर्म का उस पर और श्रोता पर एक सा प्रभाव नहीं होता । गायक की अपनी क्षमता होती है- श्रोता की अपनी क्षमता और कल्पना- यही तो सृजन है ।इसी बीच क्रिसमस का त्यौहार आता है । वित्तोरिया मिलने नहीं आती । उपन्यासकार के अनुसार इसी क्षोभ में वे लियोनार्ड से कहते हैंमुझे तो लगता है कि अपने आपको ख्रिस्त के अनुयायी कहलानेवाले सदियों से विध्वंस में लगे हैं और विश्व के विनाश की दिन-रात तैयारियाँ कर रहे हैं ।युद्धोन्मादी पश्चिम के प्रति इस तरह के विचार रवींद्रनाथ के लिए किसी घटना विशेष के परिणाम नहीं थे ।
अंतत: रविबाबू भारत लौटते हैं । वापसी की यात्रा के समुद्री जहाज के केबिन में अपनी दी हुई आर्मचेयर रखवाने की जिद पूरा करने के लिए वित्तोरिया दरवाजे के कब्जे उखड़वा देती है । जहाज में भी आर्मचेयर के चलते वित्तोरिया की मौजूदगी बनी रहती है । जहाजे से लिखी/पाई चिट्ठियों के उद्धरणों से उपन्यास के आधे तक पाठक चला आता है । विश्व-भारती आने के बाददक्षिण अमेरिकी यात्रा पर जाने से पहले और आने के बाद से रविबाबू उल्टी-सीधी अफवाहों से घिरे थे ।इनका वर्णन करने के क्रम में रानू, रानी और इंदिरा का जिक्र आता है । इन्हीं में से इंदिरा ने पूछा था कि ‘पूरबी’ काव्य संग्रह जिसे समर्पित है वह ‘विजया’ कौन है और ‘नारी जब प्रश्न पूछती है तब वह केवल प्रश्नमात्र नहीं होता- उस प्रश्न के साथ जुड़ा उसका जीवन और जीने का अधिकार भी होता है ।’ संकेत को भी स्पष्ट करते हुए उपन्यासकार की कैफियत ध्यान देने लायक है ‘रविबाबू के सीने से चिपककर वह नूतन बौठान कादंबरी भाभी की ओर दुष्टता से देखकर हँसती रही । तुम तो हो मगर मैं भी हूँ- और तुमसे कम नहीं ।’
उपन्यासकार ने संभावित आरोप का परिहार खुद रवींद्रनाथ के मुख से कराते हुए उनसे कहलवाया है ‘नारी माधुर्या रूपा उन्मादिनी शक्ति है । आनंद सूर्य के समान स्वयं ही स्वयं को प्रकाशमान करनेवाला और विश्व को अपने अवदान से आलोकित करनेवाला- प्यार से गौरवान्विता नारी के वास्तविक रूप को पुरुष ने अपने स्वार्थ के लिए संकुचित बना रखा है । नारी- अपनी यथार्थ पहचान भूल बैठी है- इससे मानव जीवन की कितनी हानि हुई अंदाजा नहीं किया जा सकता- विवाह को नारी जीवन की एकमात्र सार्थकता कहकर नारी को विवाह के पिंजरे में बंद कर दिया ।’ रविबाबू की यह मान्यता विवाह के प्रति उनके दृष्टिकोण का परिचायक हो सकती है किंतु इसे उनके कल्पित शारीरिक संबंधों के बचाव में उनके मुख से कहलवाना उपन्यासकार की मौलिकता है । रोम्या रोलां, योगी अरविंद आदि से रविबाबू की मुलाकातें भी कवि को यथार्थ की जमीन पर नहीं ले आतीं । उपन्यासकार रविबाबू की रहस्यात्मक छवि को अंत तक बनाए रखता है । सृजन की प्रेरणा के सिलसिले में कुछ और अर्ध आध्यात्मिक उच्चार तथा कला के लगभग सभी माध्यमों में रविबाबू का प्रवेश । खासकर अंतिम हिस्से में फ़िल्म और चित्रकला के साथ उनके जुड़ाव को लेकर विवरण दिए गए हैं । फ़िल्म तो किसी और ने तैयार की थी जो बाद में नष्ट हो गई लेकिन चित्रकारी तो उन्होंने खुद की थी । उनके चित्रों की प्रदर्शनी यूरोप की जमीन पर हुई जिसका आयोजन भी वित्तोरिया ओकाम्पो के चलते ही हो सका ।
इसी क्रम में उनके कुछ आत्म धिक्कार के प्रसंग भी आते हैं जो यूरोप के प्रति अपने अतिरिक्त आकर्षण को लेकर रविबाबू जाहिर करते हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इसके बावजूद वे अपनी यूरोपीय प्रसिद्धि को लेकर गर्व भी करते हैं । एकाध स्थानों पर यह आत्म धिक्कार बेहद सकारात्मक ढंग से प्रकट होता है । उदाहरण के लिए रानी से उनका आत्म स्वीकार ‘रानी, खतरे उठाने से मुझे डर नहीं लगता । मैं जीवन भर खतरे उठाता आया हूँ । उलटे कई बार ऐसा भी लगता है जितने खतरे उठाने चाहिए थे मैंने उठाए नहीं । जीवन की धारा में मैं दूर किनारे पर ही रह गया । बाबा मोशाय ने कहा था जमींदारी खत्म कर देना । मैं आज तक नहीं कर पाया ।’ ऐसे ही मौके उपन्यास में रविबाबू को ऊपर उठा देते हैं । गौरतलब यह भी है कि उन्हें यह बात तालस्ताय के देश में याद आती है ।
कुल मिलाकर उपन्यास अगर मौलिक रूप से हिंदी में लिखा गया है तो विषय की नवीनता और रवींद्रनाथ के मूर्ति भंजन का सफल प्रयास है । लेकिन इसकी मौलिकता में जगह जगह गंभीर संदेह पैदा होता है । लगता ऐसा है कि यह एकाधिक बांग्ला उपन्यासों-पुस्तकों का भावानुवाद है ।                                 

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