Tuesday, January 6, 2015

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तर्क पद्धति

              
                                                                                                                                                                                     
शुक्ल जी की तर्क पद्धति को कोई नाम देना जरुरी नहीं है लेकिन ध्यान तो वह अवश्य खींचती है । यह पद्धति उनके भाव या मनोविकार संबंधी निबंधों में व्यक्त हुई है । कहीं अलग से उन्होंने इसे स्पष्ट नहीं किया है लेकिन चिंतामणि- भाग 1’ के निबंधों में वह आद्यंत समाई हुई है । आचार्य शुक्ल की यह तर्क पद्धति केवल उनके निबंधों तक सीमित नहीं है बल्कि उनकी आलोचना और विशेष रूप से ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में प्रकट होती है । इतिहास में हजारेक साहित्यकारों का जिक्र होने के बावजूद किन्हीं दो लोगों की साहित्यिक विशेषता के उल्लेख में दोहराव नहीं मिलेगा । ऐसा विश्लेषण अर्थात अलग अलग करके देखने और समझने की अगाध क्षमता से ही संभव है । निबंधों में इस पद्धति की पहचान सबसे अधिक आसानी से होती है । 
सबसे पहले हमारा सामना द्वैत में द्वंद्व को रेखांकित करने वाली दृष्टि से होता है जिसमें परस्पर विरोधी तत्वों की मौजूदगी एक ही साथ दिखाई देती है । मसलन पहले ही निबंधभाव या मनोविकारमें पहला वाक्य है- ‘अनुभूति के द्वंद्व ही से प्राणी के जीवन का आरंभ होता है ।यह जोड़ा सुख और दुख की सामान्य अनुभूतियों का है । एक ही प्राणी में ऊपर से आपस में विरोधी प्रतीत होने वाली अनुभूतियों की उपस्थिति के अलावे उनकी बढ़ती हुई जटिलता की व्याख्या के लिए वे उस समय यूरोपीय चिंतन में प्रभावी एक अन्य दार्शनिक पद्धति की मदद लेते हैं । उसे हम विकासवाद के नाम से जानते हैं और उसका असर भी मौजूद है जब वे जीवन के आगे बढ़ने के साथ इनकी जटिलता को भी बढ़ता हुआ दिखाते हैं । ध्यान देने की बात है कि विकासवाद प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धति थी, खासकर वनस्पति विज्ञान की जिसमें किसी वनस्पति में उसके ही आंतरिक गुणों का विकास दिखाई देता था । लेकिन आचार्य शुक्ल के लिए विकास का मतलब इन्हीं अनुभूतियों का आंतरिक विकास नहीं बल्कि मनुष्य के सामाजिक जीवन का विकास है जिसके साथ ये अनुभूतियाँ क्रमशः जटिल होती जाती हैं । सामाजिक जीवन के इस विकास को वे दुनिया के बारे में व्यक्ति की बढ़ती हुई जानकारी से परिभाषित करते हैं- ‘नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनसे संबंध रखने वाली इच्छा की अनेकरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न भिन्न योग संघटित होते हैं जो भाव या मनोविकार कहलाते हैं । सामान्य मनोभावों से शुरू होकर जटिल मनोभावों की ओर यह विकास अपनी यात्रा में व्यक्ति की उम्र में बढ़ोत्तरी के साथ ही समाजीकरण की बढ़ोत्तरी के चलते उसके ज्ञान के विस्तार को मान्यता देता है । मनोभावों के विकास की यह समझदारी ज्ञान के विकास के साथ ही मनुष्य की संवेदनशीलता के भी विस्तार के समूचे आयाम समेटे हुए है । संभवत: इसी समझ के विनिवेशन से साहित्य की ऐसी धारणा की स्थापना होती है जिसके अनुसार साहित्य मानव मन के भावजगत से जुड़ा होता है और धार्मिक कृतियों के मुकाबले सार्वभौमिक पहुंच रखता है । जिस मनुष्य के भावजगत को वह संबोधित होता है वह मनुष्य ऐहिक प्राणी है और उसकी भावनाओं का निर्माण इसी दुनिया-समाज में होता है । इसी के चलते साहित्यिक रचना को भी अपना विषय इसी दुनिया-समाज से उठाना पड़ता है तभी वह पाठक के मन में वांछित भावों को उद्बुद्ध कर पाता है ।     
चूँकि ये भाव यौगिक यानी आपस में मिले हुए होते हैं इसलिए पहला काम उन्हें अलगाकर पहचानना है । इसके लिए शुक्ल जी जिस पद्धति का सहारा लेते हैं उसे अरस्तू द्वारा प्रस्तुत परिभाषा की परिभाषा से सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है । विल ड्यूराँ ने अपनी किताबद स्टोरी आफ़ फिलासफीके दूसरे अध्याय में बताया है कि अरस्तू के अनुसार किसी भी बेहतरीन परिभाषा के दो अंग होते हैं- सबसे पहले जिस चीज की परिभाषा करनी है उसे उससे मिलते जुलते लक्षणों की चीजों के प्रवर्ग में रखना होता है, फिर यह बताना होता है कि उस प्रवर्ग की बाकी चीजों से उसकी भिन्नता क्या है । इस पद्धति को हम शुक्ल जी द्वारा भावों को एकदम स्पष्ट करने की चेष्टा में सफलता से लागू करते हुए देखेंगे । पहले हमने जिन दो प्रवर्गों का जिक्र किया अर्थात सुखात्मक और दुखात्मक अनुभूतियों के प्रवर्ग, उनमें शुक्ल जी समस्त भावों को विभाजित करते हैं, उसके बाद उनकी विशेषता बताते हैं । विशेषता बताने के लिए जरूरी है कि किसी भाव को शेष भावों से अलगाया जाए । उदाहरण के लिए दुखात्मक अनुभूतियों के प्रवर्ग में से वे क्रोध और भय को इस तरह पहचनवाते हैं- ‘हानि या दुःख के कारण में हानि या दुःख पहुँचाने की चेतन वृत्ति का पता पाने पर हमारा काम उस मूल अनुभूति से नहीं चल सकता जिसे दुःख कहते हैं बल्कि उसके योग से संघटित क्रोध नामक जटिल भाव की आवश्यकता होती है । जब हमारी इंद्रियाँ दूर से आती हुई क्लेशकारिणी बातों का पता देने लगती हैं, जब हमारा अंतःकरण हमें भावी आपदा का निश्चय कराने लगता है; तब हमारा काम दुःख मात्र से नहीं चल सकता बल्कि भागने या बचने की प्रेरणा करनेवाले भय से चल सकता है ।इससे क्रोध और भय के बीच समानता और अंतर का पता चलता है । समानता यह कि दोनों दुःख से पैदा होती हैं; क्रोध दुःख के चेतन (ज्ञात) कारण के प्रति पैदा होता है जबकि भय दुःख के अचेतन (अज्ञात) कारण से होता है ।
भावों की मौजूदगी मात्र का कोई अर्थ नहीं । भावों के फलस्वरूप इच्छा का जन्म होता है जिससे विभिन्न शारीरिक प्रयत्न प्रकट होते हैं । लेकिन इन प्रयत्नों से भी महत्वपूर्ण है भाषा जिससे इसकी अभिव्यक्ति में व्यापकता आती है । शुक्ल जी कहते हैं- ‘बात यह है कि भावों द्वारा प्रेरित प्रयत्न या व्यापार परिमित होते हैं । पर वाणी के प्रसार की कोई सीमा नहीं । उक्तियों में जितनी नवीनता और अनेकरूपता आ सकती है या भावों का जितना अधिक वेग व्यंजित हो सकता है उतना अनुभाव कहलानेवाले व्यापारों द्वारा नहीं ।इस तरह इस पूरे विवेचन में भाषा भी एक महत्वपूर्ण संकेतक के बतौर विचारणीय हो जाती है । साथ ही ‘अनुभाव’ जैसी शब्दावली का प्रयोग हमें इस तथ्य के प्रति जागरूक रखता है कि बात मनोविज्ञान की नहीं, काव्यशास्त्र की हो रही है । यह अलग बात है कि वांछित मनोभाव को जगाना साहित्यिक रचना का उद्देश्य होता है इसलिए मनोभावों का काव्यशास्त्रीय विवेचन भी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण पर आधारित है । 
भावों का यह समस्त विवेचन बिना किसी कारण नहीं किया गया वरन इसके पीछे निश्चित उद्देश्य हैं । ये उद्देश्य उनके इस वाक्य से स्पष्ट होते हैं- ‘समस्त मानव जीवन के प्रवर्तक भाव या मनोविकार ही होते हैं । मनुष्य की प्रवृत्तियों की तह में अनेक प्रकार के भाव ही प्रेरक के रूप में पाए जाते हैं ।इसी विंदु पर आचार्य शुक्ल भावों के सामाजिक प्रकार्य की दृष्टि से उनका विवेचन करते हैं । भावजगत के परिष्कार का मक़सदनरसत्ताका प्रसार है क्योंकिरागात्मिका वृत्ति के प्रसार के बिना विश्व के साथ जीवन का प्रकृत सामंजस्य घटित नहीं हो सकता ।यहां स्वाभाविक रूप सेनरका अर्थ मनुष्य समझना होगा । हम सभी जानते हैं कि उस समय भाषा में लिंग संवेदनशीलता उतनी नहीं थी । लेकिन मनुष्य के प्रति भी बहुत ही व्यापक दृष्टि अपनाई गई है । उसका प्रसार मानव समाज तक तो है ही, प्राणी जगत भी उसी के भीतर समाहित हो जाता है । इससे भी आगे बढ़कर शुक्ल जी के चिंतन में समूची प्रकृति के अभिन्न अंग के रूप में मनुष्य दिखाई पड़ता है । यह बात तब और पुष्ट हो जाती है जब हम पाते हैं कि शुक्ल जी कविता का उद्देश्य ‘शेष प्रकृति’ के साथ मनुष्य के ‘रागात्मक संबंधों की रक्षा और निर्वाह’ घोषित करते हैं । स्वाभाविक रूप से शेष प्रकृति में किसी एक व्यक्ति के अलावा समस्त मानव समाज, मानवेतर प्राणी जगत और समूची प्रकृति आ जाते हैं । इन सबके बीच आपसी निर्भरता को बचाए रखना ही मानव समाज की स्थिति के लिए भी उन्हें आवश्यक लगता था । इस मामले में आचार्य शुक्ल का चिंतन अपने समय से बहुत आगे तक रोशनी फेंकता है ।   
दूसरे ही निबंधउत्साहमें वे एक वाक्य में कहते हैं- ‘दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंद वर्ग में उत्साह का है ।कैसे? दोनों में ही प्रयत्न की प्रधानता होती है लेकिन एक दूसरे के विपरीत । भय में भागने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है तो उत्साह में कर्म में प्रवृत्त होने का । फिर उत्साह से मिलते जुलते भावों से उसका संबंध बताते हैं- ‘धृति और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है ।लेकिन साहस भी सभी तरह का नहीं ‘--केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता । उसके साथ आनंद पूर्ण प्रयत्न या उत्कंठा का योग चाहिए ।सामाजिक उपादेयता के नजरिए से इसका मूल्यांकन करते हुए कहते हैं- ‘उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है ।साथ ही भावों की अच्छाई बुराई का पैमाना भी तय करते हैं- ‘किसी भाव के अच्छे या बुरे होने का निश्चय अधिकतर उसकी प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है ।इसी निबंध में वे भावों की निरंतरता भी समझाते हैं और इसके लिए आम जीवन से उदाहरण चुनते हैं ।
अगले निबंधश्रद्धा-भक्तिमें यह तर्क प्रक्रिया और भी परिपक्व रूप में प्रकट हुई है । उसका रूप वर्णन सबसे पहले इस तरह किया गया है कि उसे पहचानने में कोई कठिनाई न हो- ‘किसी मनुष्य में जन-साधारण से विशेष गुण व शक्ति का विकास देख उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंद-पद्धति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं ।ये गुण सामाजिक रूप से शुभ परिणामी होने चाहिए तभीजिन कर्मों के प्रति श्रद्धा होती है उनका होना संसार को वांछित है ।इसके सबसे निकट का भाव प्रेम है इसलिए उससे श्रद्धा को साफ तौर पर अलगाने की कोशिश अनेक उदाहरणों के सहारे की गई है । उदाहरणों के बाद एकाधिक सूत्रात्मक वाक्य भी आए हैं ।श्रद्धा का व्यापार-स्थल विस्तृत है, प्रेम का एकांत । प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार ।---यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण है । प्रेम में केवल दो पक्ष होते हैं, श्रद्धा में तीन । प्रेम में कोई मध्यस्थ नहीं, पर श्रद्धा में मध्यस्थ अपेक्षित है ।मध्यस्थ कोई व्यक्ति नहीं होता, श्रद्धास्पद के कर्म होते हैं । बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाई थी इसलिए फिर से जोड़ा- ‘प्रेम का कारण बहुत कुछ अनिर्दिष्ट और अज्ञात होता है; पर श्रद्धा का कारण निर्दिष्ट और ज्ञात होता है ।---श्रद्धा में दृष्टि पहले कर्मों पर से होती हुई श्रद्धेय तक पहुँचती है और प्रीति में प्रिय पर से होती हुई उसके कर्मों आदि पर आ जाती है । एक (श्रद्धा-लेखक) में व्यक्ति को कर्मों द्वारा मनोहरता प्राप्त होती है, दूसरी (प्रेम-लेखक) में कर्मों को व्यक्ति द्वारा । एक में कर्म प्रधान है, दूसरी में व्यक्ति । आधुनिक पूंजीवादी समय के स्वार्थी व्यक्तिवाद का प्रतिवाद शुक्ल जी की चेतना में समाया हुआ है और उनके इस पहलू का मूल्यांकन होना अभी बाकी है । साहित्य का धर्म ही वे मनुष्य की व्यक्ति-सत्ता को कुछ देर के लिए लोक-सत्ता में विलयित कर देना मानते हैं ।  
आचार्य शुक्ल की विश्लेषण क्षमता का प्रमाणघृणाशीर्षक निबंध में प्रस्तावित यह विभाजन है – ‘मनोविकार दो प्रकार के होते हैं- प्रेष्य और अप्रेष्य । प्रेष्य वे हैं जो एक के हृदय में पहले के प्रति उत्पन्न होकर दूसरे के हृदय में भी पहले के प्रति उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे क्रोध, घृणा, प्रेम इत्यादि ।---अप्रेष्य मनोविकार जिसके प्रति उत्पन्न होते हैं उसके हृदय में यदि करेंगे तो सदा दूसरे भावों की सृष्टि करेंगे । उसके अन्तर्गत भय, दया, ईर्ष्या आदि हैं ।इस निबंध में की शुरुआत में ही उनकी तर्क पद्धति की विशेषताओं के दर्शन होने लगते हैं । शुक्ल जी के समस्त लेखन की एक बड़ी विशेषता सूत्रवत वाक्य निर्माण है । इसका संबंध उनकी तर्क पद्धति से है । उनका पूरा ध्यान किसी भी वर्ण्य विषय से पाठक को अच्छी तरह परिचित करा देना है ताकि वह उसे पहचानने में भूल न करे । लोग उदासीनता को भी घृणा का नाम देते हैं लेकिन दोनों में महत्वपूर्ण अंतर है । यह अंतर हमारी सक्रियता से जुड़ा हुआ है । लिखते हैं- ‘जिस बात से हमें घृणा है, हम चाहते क्या आकुल रहते हैं कि वह बात न हो, पर जिस बात से हम उदासीन हैं उसके विषय में हमें परवाह नहीं रहती; वह चाहे हो, चाहे न हो ।’ कहने की जरूरत नहीं कि शुक्ल जी की चिंता ऐसी चीजों को न होने देने की है जो ‘अरुचिकर’ होती हैं । इन चीजों के संबंध में उनका कहना है कि ‘घृणा और श्रद्धा के मानसिक विषय’ प्राय: सर्वस्वीकृत होते हैं । 
घृणा को स्पष्ट करने के क्रम में वे इसके सामाजिक मूल को बताना चाहते हैं । इसी क्रम में मनुष्य के सामाजिक अनुभव में विस्तार आने से इस मनोभाव के पैदा होने की प्रक्रिया को सूत्रवत व्यक्त करते हैं- ‘सृष्टि-विस्तार से अभ्यस्त होने पर प्राणियों को कुछ विषय रुचिकर और कुछ अरुचिकर प्रतीत होने लगते हैं ।यहांरुचिकर-अरुचिकरके द्वैत पर अनायास नजर जाती है लेकिन घृणा का संबंधअरुचिकरके साथ है इसलिए दूसरा ही वाक्य इसे स्पष्ट करता है- ‘इन अरुचिकर विषयों के उपस्थित होने पर अपने ज्ञान-पथ से उन्हें दूर रखने की प्रेरणा करनेवाला जो दु:ख होता है उसे घृणा कहते हैं ।अरुचिकर की उपस्थिति से घृणा के अलावा क्रोध भी हो सकता है इसलिए उससे इसका अंतर करना उन्हें जरूरी लगा । अंतर स्थापित करते हुए फिर से सामाजिक जीवन से उन्होंने जो उदाहरण दिया है वही आचार्य शुक्ल की सामाजिक संवेदनशीलता को समझने के लिए पर्याप्त है । इन दोनों मनोभावों के बीच अंतर है किहम अत्याचारी पर क्रोध और व्यभिचारी से घृणा करते हैं ।कुछ देर बाद ही यह अंतर सक्रियता से व्याख्यायित होने लगता है जब वे कहते हैं- ‘घृणा का भाव शांत है उसमें क्रियोत्पादिनी शक्ति नहीं है । घृणा निवृत्ति का मार्ग दिखलाती है और क्रोध प्रवृत्ति का ।क्रोध का ही एक रूप वैर भी होता है, उससे घृणा का अंतर भी ध्यान देने लायक है- ‘वैर का आधार व्यक्तिगत होता है, घृणा का सार्वजनिक ।आश्चर्य की बात नहीं कि सामाजिक दृष्टि से घृणा को जरूरी समझने के मामले में आचार्य शुक्ल अकेले नहीं हैं । उन्हीं के समकालीन लेखक प्रेमचंद ने भीसाहित्य में घृणा की उपयोगिताशीर्षक निबंध लिखा था । उस समय घृणा की जरूरत को रेखांकित करने की इन साहित्यिक कोशिशों के पीछे कहीं न कहीं सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की चाहत थी ।   
उपर्युक्त विवेचन से शुक्ल जी के लेखन की एक और विशेषता स्पष्ट होती है । उनकी साहित्य संबंधी आलोचना और विवेचन के मूल में गहरा नैतिक-सामाजिक दायित्व बोध मौजूद है । यह नैतिकता स्थूल विधि-निषेध पर आधारित न होकर सामाजिक कल्याण की भावना से आप्लावित है । उनके निबंधों के विश्लेषण से पता चलता है कि साहित्यालोचन के लिए केवल साहित्यिक रुचि ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि साहित्यिक रुचि भी सामाजिक कल्याण के नैतिक दायित्व-बोध से उपजती है । इसके अभाव में आलोचना काव्य-कला की पहचान की रीतिवादी रुचि में पतित हो जाने के लिए मजबूर है और साहित्येतिहास भी कवि कीर्तन मात्र रह जाएगा ।

आचार्य शुक्ल के साहित्यालोचन के मूल में पूंजीवाद से उत्पन्न व्यक्तिबद्धता और स्वार्थ के बोलबाले तथा समाज के स्वस्थ संचालन के लिए आवश्यक सहज मानवीय गुणों की जगह लोभ की प्रतिष्ठा के प्रति उनकी नैतिक आलोचना है । ठोस रूप से कहें तो ब्रिटिश उपनिवेशवाद में इस पूंजीवादी लोभ को संस्थाबद्ध रूप प्राप्त हुआ था इसलिए इसकी आलोचना भी उनके काव्यालोचन की अंतर्धारा है । सभ्यता को वे मनोभावों पर ‘आवरण’ डालने वाली चीज समझते थे और कविता को मनोभावों के सहज प्रकटन का माध्यम मानते थे । इस मामले में उन्होंने अपने समय में उठ रही स्वाधीनता की आकांक्षा का साथ दिया । तभी वे अपने समय की काव्य प्रवृत्ति (छायावाद) की पृष्ठभूमि का निरूपण करते हुए यह चिन्हित कर सके कि उस समय हमारे देश का स्वाधीनता आंदोलन, स्वतंत्रता के एक विश्वव्यापी उभार के अंग के रूप में दिखाई पड़ा । आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना की इन्हीं विशेषताओं के कारण हिंदी की प्रगतिशील आलोचना ने आम तौर पर उसे विरासत के रूप में ग्रहण किया और आगे बढ़ाया ।                           

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