Friday, December 18, 2015

सामंतवाद, वर्ण, जाति और राष्ट्रीयता @ रामविलास शर्मा

          
                                       
(राम विलास शर्मा का यह लेखमार्क्सिस्ट मिससेलेनीके पृष्ठ 111-119 पर प्रकाशित है ।)
   
सामंतवाद शब्द से स्वाभाविक तौर पर दिमाग में ऐसे सामंती भूस्वामी का अस्तित्व उभरता है जो जमीन के बड़े टुकड़े का मालिक हो और उस जमीन पर उसके भूदास उसके लाभ के लिए बगैर पर्याप्त मुआवजे के मेहनत करें बिना सामंती भूस्वामी के सामंती समाज हो सकता है ?
जो लोग यकीन करते हैं कि बिना सामंती भूस्वामी के सामंतवाद नहीं हो सकता वे भी मानते हैं कि सामंती समाज में केवल दो शत्रुतापूर्ण वर्ग- सामंती भूस्वामी और भूदास- नहीं थे बल्कि व्यापारी, हस्तशिल्पी और छोटी जोत के किसान जैसे अन्य सामाजिक समूह भी थे इन सामाजिक समूहों के अस्तित्व की व्याख्या इस मान्यता के आधार पर नहीं हो सकती कि सामंती व्यवस्था के तहत जो उत्पादन संबंध था उसमें सामंती भूस्वामी उत्पादन के साधनों का स्वामी था और उत्पादन में लगे हुए कामगार- भूदास- पर उसका पूरा मालिकाना नहीं था
जिन समाजों में रैयतवाड़ी व्यवस्था प्रचलित थी, जहां बड़े सामंती भूस्वामी मौजूद नहीं थे वे समाज किस सामाजिक व्यवस्था में आएंगे ? उन ग्रामीण समुदायों का चरित्र निरूपण कैसे होगा जहां जमीन साझा थी ?
इन सवालों का सही जवाब सामंती उत्पादन पद्धति की प्रकृति की सही समझदारी के आधार पर ही दिया जा सकता है । एंगेल्स ने कहा हैपूंजीवादी उत्पादन से पहले यानी मध्ययुग में छोटे पैमाने पर उत्पादन आम था । इसका आधार कामगारों का उत्पादन के अपने साधनों पर निजी मालिकाना था । इसका उदाहरण छोटे किसान, स्वतंत्र या भूदास, का कृषि उद्योग और नगर का हस्तशिल्प उद्योग है’ (एंटी-ड्यूरिंग) । सामंती उत्पादन मूल तौर पर छोटे पैमाने का उत्पादन है । ऐसा उत्पादन नगर और देहात दोनों जगह मिलता है । यही विशेषता नगर और देहात को एकल उत्पादन प्रणाली में बांधती है । स्तालिन ने कहा कि सामंतवाद के तहत उत्पादन के साधनों का मालिक सामंती भूस्वामी होता है; एंगेल्स ने कहा कि उत्पादन के साधनों पर कामगारों के निजी मालिकाने के आधार पर छोटे पैमाने का उत्पादन होता था । कौन सही है ?
सामंती उत्पादन पद्धति पुरानी कबीलाई व्यवस्था के गर्भ में विकसित और परिपक्व होती है । इस पद्धति की जरूरत पुराने कबीलाई समाज के आंतरिक और बाहरी दोनों अंतर्विरोधों से पैदा होती है । कोई भी कबीला प्रकृति की मनमर्जी पर हमेशा निर्भर रहकर जीवित नहीं रह सकता; अपने बचाव के लिए इसे उत्पादन की अपनी तकनीक को विकसित करना पड़ता है । प्रकृति और मनूष्य के बीच का यही आंतरिक अंतर्विरोध होता है जो किसी भी कबीले को महज मनुष्यों की जीवन रक्षा के लिए भी सामुदायिक श्रम के स्वर्ग और सतयुग को छोड़ने के लिए बाध्य कर देता है । चूंकि उत्पादन पिछड़ा हुआ था इसलिए जरूरी था कि अलग अलग कबीले केवल आपस में लड़ें नहीं, साझे फायदे के लिए सहयोग भी करें ।
जैसे जैसे उनमें लेनदेन का विकास हुआ, वैसे ही वैसे कबीले के भीतर श्रम विभाजन अनिवार्य होता गया । जिस समाज में श्रम विशिष्टीकरण नहीं हुआ हो उसमें माना जाएगा कि प्रत्येक व्यक्ति हरेक काम समान दक्षता से करेगा । यह स्थिति न तो युद्ध में अच्छी होगी, न ही कबीलों के बीच लेनदेन के लिए । एक कबीले से दूसरे के बीच यही वह बाहरी अंतर्विरोध है जिसने मनुष्य को नई उत्पादन पद्धति की ओर बढ़ने के लिए बाध्य किया । रक्त संबंधों की नातेदारी पर आधारित कबीला उत्पादन के साधनों पर सामुदायिक स्वामित्व के सहारे वस्तुओं का उत्पादन और वितरण सामुदायिक तौर पर करता था लेकिन ऊपर वर्णित अंतर्विरोधों के चलते उसके भीतर ही उत्पादन और वितरण की एक विपरीत व्यवस्था फलने-फूलने लगी । सभी स्त्रियों-पुरुषों द्वारा सभी काम समान दक्षता से करने की बजाय कुछ पुरुषों-स्त्रियों से मांग होने लगी कि वे खास वस्तुओं के उत्पादन में विशेषज्ञता हासिल करें और उन्हें अन्य कबीलों से बेहतर उत्पादित करें ।
उत्पादन की इकाई के बतौर कबीले की जगह परिवार ने ले ली । श्रम विशिष्टीकरण की प्रक्रिया परिवार के भीतर पूरी की जाती और परिवार के सभी सदस्य इस श्रम प्रक्रिया में सहयोग करते । हो सकता है कि परिवार के भीतर और भी श्रम विभाजन होता रहा हो, स्त्रियों और बच्चों को इस प्रक्रिया में खास काम दिए जाते रहे हों लेकिन इस तथ्य में कोई संदेह नहीं कि उत्पादन की नई इकाई परिवार बन गया । श्रम विशिष्टीकरण जितना अधिक होगा बच्चों के लिए उतना ही जरूरी होगा कि वे अपने पिता का व्यवसाय बचपन में ही सीखें । सामंती उत्पादन पद्धति में यही आर्थिक जरूरत थी जिसने जाति व्यवस्था को जन्म दिया । जाति व्यवस्था की खास विशेषता यह है कि बच्चे को पिता के व्यवसाय का अनुसरण करना पड़ता है; और इसीलिए समाज में जितने व्यवसाय होंगे उतनी जातियां बनेंगी ।
श्रम विभाजन से समाज में अवकाशभोगी वर्ग का जन्म होता है । यह वर्ग उत्पादन में सक्रिय भागीदारी नहीं करता है लेकिन इस श्रम की उपज का आंशिक या पूर्ण अधिग्रहण कर लेता है । यह वर्ग या तो मानसिक कर्म करता है, या युद्ध करता है या लेनदेन के काम में लगा रहता है । संस्कृति के अभिरक्षक ब्राह्मण वर्ण बने; युद्धकर्ता क्षत्रिय वर्ण हुए और जो लोग वितरण तथा लेनदेन के काम में लगे हुए थे वे वैश्य वर्ण हुए । शेष जनता, उत्पादक, शारीरिक काम करनेवाले सभी शूद्र वर्ण में शरीक हुए ।
क्षत्रिय वर्ण में बड़े भूस्वामी हो सकते हैं या यह वर्ण ऐसे भी समाज में मौजूद रह सकता है जिसमें बड़े भूस्वामी न हों । नए श्रम विभाजन की मांग थी कि प्रशिक्षित रक्षाकर्मियों का एक खास वर्ग हो जो समाज की रक्षा करे क्योंकि जो लेनदेन के काम में या शारीरिक काम में लगे हुए थे उनके लिए उसी समय युद्ध के काम में लगना आसान नहीं होता । इसी जरूरत के चलते छोटे पैमाने पर उत्पादन वाले समाज में भी क्षत्रिय वर्ण होता था चाहे सामंती भूस्वामी हों या न हों । स्वाभाविक रूप से जहां सामंती भूस्वामी वर्ग होता था वहां इस क्षत्रिय वर्ण की सशस्त्र शक्ति का प्रयोग सामाजिक दमन के लिए और सामंती भूस्वामी वर्ग के वर्ग हितों की रक्षा के लिए भी होता था ।
प्रत्येक सामंती समाज में वर्ण व्यवस्था अपरिहार्य है । चार वर्णों में विभाजन किस हद तक होगा यह उस समाज के विकास के स्तर पर निर्भर है ।
कोई भी पुरानी सामाजिक व्यवस्था नई सामाजिक व्यवस्था के उदय के साथ पूरी तरह गायब नहीं हो जाती । अगर नई सामाजिक व्यवस्था की सहायता के लिए संगठित राजनीतिक पार्टी और उन्नत प्रौद्योगिकी होने के बावजूद समाजवादी समाज में पूंजीवादी अवशेष अब भी बने हुए हैं तो हम समझ सकते हैं कि सामंती समाज में कबीलाई सामाजिक व्यवस्था के अवशेष किस हद तक बचे रहे होंगे ।
कबीला रक्त संबंध की नातेदारी से एकताबद्ध रहता था । ये बंधन जाति के भीतर बने रहे । किसी जाति के सदस्य वही नहीं होते जो किसी खास व्यवसाय में लगे हों बल्कि वे भी होते हैं जो रक्त-संबंध आधारित नातेदारी के बंधन में एक ही भाईबंदी में भी बंधे हों । किसी कबीले का संपर्क जब किसी विकसित सामंती समाज से हुआ होगा तो पूरा का पूरा कबीला अखंड रूप से उसमें समा गया होगा । इसी वजह से भारत में जितने व्यवसाय हैं उससे अधिक जातियां हैं । जाट गूजर या मीणा एक ही कृषि व्यवसाय में लगे हुए हो सकते हैं लेकिन वे अपनी अलग जातिगत पहचान भी बनाए रखेंगे जो कबीलाई युग का अवशेष है ।
कबीले में उत्पादन के साधनों पर सामुदायिक स्वामित्व था । यह साझा स्वामित्व उसी हद तक भंग होता था जिस हद तक नया श्रम विभाजन इसे एकदम अनिवार्य बना देता था । साझा भूमि का अस्तित्व निजी मालिकाने वाली जमीन और चरागाहों के साथ बना रहा था । उत्पादन के जो साधन साझा नहीं थे उन पर परिवार का स्वामित्व था । आधुनिक समाज के पति-पत्नी-बच्चे वाले परिवार के मुकाबले सामंती परिवार काफी बड़ा होता था । इस बड़े परिवार का उत्पादन के साधनों पर सामुदायिक स्वामित्व हो सकता था या कुलपति, पिता या पुत्र, का इस पर निजी स्वामित्व भी हो सकता था । इस तरह संपत्ति के सामंती स्वामित्व के विभिन्न रूप पैदा हुए । पुरानी कबीलाई व्यवस्था के अवशेष संपत्ति के सामंती स्वामित्व के साथ साथ सामुदायिक स्वामित्व की मौजूदगी की व्याख्या कर देते हैं ।
सामंती उत्पादन पद्धति ने पुराने कबीलों को तोड़ा, घुला-मिला दिया और नए सामाजिक ढांचे में पुन: एकताबद्ध किया । यह नया सामाजिक ढांचा राष्ट्रीयता था । पूंजीवादी दौर में राष्ट्रों का निर्माण इन्हीं राष्ट्रीयताओं से हुआ, न कि कबीलों या किसी अन्य नामहीन ढांचे से ।
जैसा बहुत से लोग मानते हैं उस तरह जाति व्यवस्था केवल भारतीय समाज में नहीं थी । किसी न किसी रूप में यह प्रत्येक सामंती समाज में पाई जाती है । प्राचीन यूनान की तुलना में प्राचीन मिस्र में सामंती उत्पादन पद्धति अधिक विकसित थी और नतीजतन वहां सामाजिक समूहों ने जाति के रूप में अधिक साफ तौर पर ठोस आकार ग्रहण किया था । जब प्लेटो ने सोचा कि समाज को सबसे अच्छे तरीके से किस तरह संगठित किया जाए तो आदर्श के रूप में उसे मिस्र नजर आया । मार्क्स ने लिखाप्लेटो के रिपब्लिक में राज्य के निर्माणकर्ता सिद्धांत के रूप में जितना श्रम विभाजन पर विचार किया गया है वह महज मिस्र की जाति व्यवस्था का एथेनीय आदर्शीकरण है । एक उद्यमशील देश के आदर्श के बतौर मिस्र ने प्लेटो के बहुतेरे समकालीनों को प्रभावित किया था जिनमें आइसोक्रेटीज भी थे और उसका यह महत्व रोमन साम्राज्य के ग्रीकों तक के लिए बना हुआ था’ (पूंजी, खंड 1) । आइसोक्रेटीज का मानना था कि मिस्र के देवता बुसिरिस ने लोगों को जातियों में बांटा है और ‘आदेश दिया है कि कोई भी व्यवसाय एक ही व्यक्ति हमेशा करे क्योंकि वह जानता है कि जो भी अपना पेशा बदलता है वह किसी में भी कुशल नहीं रह पाता; लेकिन जो एक ही काम से चिपके रहते हैं वे उसे सर्वोच्च पूर्णता प्रदान करते हैं’; और आइसोक्रेटीज को लगा कि इस श्रम विभाजन के कारण ‘कला और हस्तशिल्प के मामले में वे अपने प्रतियोगियों से आगे निकल जाते हैं वैसे ही जैसे कोई विद्वान किसी अनाड़ी को पीछे छोड़ देता है’ (पूंजी में ही उद्धृत) । आइसोक्रेटीज ने अच्छी तरह समझा था कि जब कोई कारीगर जीवन भर एक ही पेशे से चिपका रहता है तो कैसे हस्तशिल्प में पूर्णता आती है ।                 
अरस्तू के समय सामंती व्यवस्था और सुदृढ़ हुई । वर्गीय भिन्नता और तीखी हुई । नतीजे के बतौर अरस्तू किसानों और कारीगरों को कोई राजनीतिक अधिकार देने को तैयार नहीं थे । नागरिकता के अधिकार भूमिधर वर्ग के लिए सुरक्षित थे । उन्होंने कहा ‘सचाई यह है कि जो लोग राज्य के अस्तित्व के लिए अनिवार्य नहीं हैं उन सभी लोगों को हम नागरिक नहीं मान सकते’ (द पालिटिक्स आफ़ अरिस्टोटल, मैकमिलन 1923) । न केवल शूद्र बल्कि पूर्ण राजनीति के लिए वैश्य भी मताधिकार विहीन होंगेनागरिकों को यांत्रिकी या व्यवसाय से जुड़ा हुआ जीवन नहीं बिताना चाहिए क्योंकि ऐसा जीवन अधम है और सद्गुण के लिए घातक है । और भी, जिन लोगों को हमारा नागरिक होना है उन्हें खेतिहर भी नहीं होना चाहिए क्योंकि खेतिहर जीवन में अवकाश असंभव है तथा सद्गुण की संस्कृति और राजनीतिक गतिविधि के लिए अवकाश भी उतना ही जरूरी है ।’ (वही) केवल अवकाशभोगी वर्ग ही शासन करने योग्य हैं औरभू संपत्ति इन्हीं वर्गों के हाथ में होनी चाहिए क्योंकि समृद्धि हमारे नागरिकों की अनिवार्य योग्यता है और केवल इन्हें ही नागरिकता प्राप्त होगी ।’ (वही) सेना और विचारक वर्ग अवकाशभोगी वर्ग हैं । अरस्तू की इच्छा थी कि आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सत्ता मात्र एक वर्ग के हाथों में संकेन्द्रित हो और वह वर्ग हो भूस्वामी वर्ग । युवावस्था में इन्हें सैनिक के बतौर सेवा देनी चाहिए और जो इन जिम्मेदारियों की उम्र पार कर चुके हैं उन्हें अपनी पूजा देवताओं को अर्पित करनी चाहिए और उन्हीं की सेवा में अपना देय पाना चाहिएक्योंकि ये ही लोग हैं जिन्हें पुजारी का कार्यभार समुचित रूप से दिया जा सकता है’ (वही) । कोई किसान या कोई कारीगर पुजारी बन सकता है ? भारत में तो एक शूद्र भी ब्राह्मण हो सकता है ! ‘किसी खेतिहर या यांत्रिक को पुजारी नहीं नियुक्त किया जा सकता, क्योंकि उचित यही होगा कि केवल नागरिक ही अपना सम्मान देवताओं को अर्पित करें ।’ (वही) केवल कुलीनों को ही पुजारी और सैनिक होना चाहिए क्योंकि कुलीनता वंशानुगत गुण है’ (वही) । यह सही है कि केवल कुलीन ही राज्य नहीं चला सकते लेकिन उन्हें शेष लोगों को उसी तरह नियंत्रित करना चाहिए जिस तरह आत्मा शरीर को नियंत्रित करती है । यह सही है कि आम तौर पर खेतिहर, कारीगर और किराए के मजदूर राज्य के लिए अपरिहार्य होते हैं लेकिन ठीक ठीक तो राज्य के अंग सैनिक और विचारक वर्ग ही हैं ।’ (वही)
इस प्रकार अरस्तू की किताब पालिटिक्स में ग्रीक समाज में वर्णों के बनने का पूर्ण चित्रण है ।
इंग्लैंड में जाति व्यवस्था मौजूद थी- या- है ?
वहां इसकी मौजूदगी न केवल मध्य युग के दौरान थी बल्कि पुनर्जागरण (रिनेसां) के दौरान भी खूब फल-फूल रही थी और औद्योगिक क्रांति की दीर्घ कालावधि में भी जिंदा रहने की कोशिश में खूब धूल उड़ा रही थी ।
बासवेल ने एक बार जानसन से एक लेखक की शिकायत की जो कुलीनों के प्रति पर्याप्त सम्मान नहीं प्रदर्शित करता था । उस मौके पर जानसन ने कहा: “मान लीजिए कोई जूता गांठनेवाला उससे उसी समानता का दावा करे जिसका दावा वह कुलीनों से करता है: वह किस तरह घूरेगा ।क्यों महोदय, घूर क्यों रहे हैं? (जूता गांठनेवाला कहता है), समाज की मैं बहुत सेवा करता हूं । सही बात है कि मुझे इसके लिए पैसे मिलते हैं; लेकिन आपको भी तो महोदय मिलते ही हैं: और माफ कीजिए यह कहने के लिए कि मुझसे ज्यादा ही मिलते हैं, जबकि आप ऐसा कुछ नहीं करते जो बहुत जरूरी हो । क्योंकि मनुष्य का काम आपकी किताबों के बिना भी अच्छी तरह चल जाएगा, लेकिन मेरे जूतों के बगैर नहीं चलेगा ।इसलिए महोदय अगर पद की विशिष्टता के लिए निश्चित अपरिवर्तनीय नियम नहीं होंगे तो वरीयता के लिए लगातार संघर्ष होगा । इन पदों से ईर्ष्या नहीं पैदा होती क्योंकि ये संयोगवश प्राप्त होते हैं ।” (द लाइफ़ आफ़ सैमुएल जानसन)
यहां जानसन महज वर्गीय भेदभाव का बचाव नहीं कर रहे हैं; वे पद संबंधी भेदभाव का बचाव कर रहे हैं जो किसी के पेशे के चुनाव पर निर्भर नहीं है बल्कि संयोगवश प्राप्त होता है यानी किसी खास जाति में आपके जन्म पर निर्भर है । लोग चुपचाप जन्म के इस संयोग को स्वीकार कर लेते हैं और इसीलिए जानसन की राय में कोई ईर्ष्या नहीं पैदा होती ।
इंग्लैंड में किसी भी अन्य वर्ग से अधिक सम्मान भूमिधर वर्ग का था । पादरी इस वर्ग के वेतनभोगी नौकर की तरह थे । व्यापार और वाणिज्य के विकास से नए प्रतियोगी सामने आए जिन्होंने प्रतिष्ठा पर कुलीनों के एकाधिकार पर सवाल उठाया । बासवेल ने कहा ‘लेकिन शायद निचले तबकों के लोगों का अति तीव्र विकास होने से जन्म और भद्रता के आधार पर स्थापित विभेद का मूल्य घट जाता है । यह विभेद अधीनता की विराट परियोजना के लिए हमेशा लाभप्रद पाया गया है ।’ (वही) अधीनता की इस विराट परियोजना के उदाहरण अंग्रेजी साहित्य में भरे पड़े हैं ।
इंग्लैंड में भूमि पर सामुदायिक स्वामित्व था ?
भूमि का सामुदायिक स्वामित्व भारतीय सामंती समाज का विशेष लक्षण माना जाता है । असल में कुछ लोग तो यह भी मानते प्रतीत होते हैं कि भारत में सामंती समाज नहीं था; इस देश के लोग अंग्रेजों के आने से पहले आदिम साम्यवाद के विभिन्न चरणों में रह रहे थे, अंग्रेजों के आने से भारतीय इतिहास में पहली सामाजिक क्रांति पूरी हुई ।
भूमि का सामुदायिक स्वामित्व न केवल मध्य युग में था बल्कि अंग्रेजी जाति व्यवस्था की तरह ही पुनर्जागरण (रिनेसां) के दौरान भी बना रहा और सिर्फ़ औद्योगिक क्रांति के समय काफी हिंसा के बाद खत्म हुआ । ‘पूंजी’ के पहले खंड में मार्क्स ने ‘सामुदायिक जमीन की व्यवस्थित लूट’ की बात की है । यह लूट होती कैसे अगर भूमि पर सामुदायिक स्वामित्व न होता ? मार्क्स ने कहा कि सामुदायिक संपत्ति पुरानी ट्यूटानिक संस्था थी ‘जो सामंतवाद के परदे में जीवित रही’ । (वही) दूसरे शब्दों में यह कबीलाई समय का अवशेष था जो सामंती व्यवस्था के दौरान भी मौजूद था । 15 वीं और 16 वीं सदी में इस सामुदायिक संपत्ति पर कब्जा करने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर हिंसा की वारदात भी हुई थी । मार्क्स ने कहा ’18 वीं सदी में हासिल अग्रगति इस बात में व्यक्त हुई कि कानून ही लोगों की जमीन की चोरी का उपकरण बन गया, हालांकि बड़े फ़ार्मरों ने अपने कुछ स्वतंत्र तरीकों का भी इस्तेमाल किया । लूट का संसदीय रूप ऐक्ट फ़ार एनक्लोजर्स आफ़ कामन्स (सामान्य जनता के लिए बाड़े का कानून) था । यह कानून दूसरे शब्दों में ऐसा अध्यादेश था जिसके जरिए जमींदारों ने जनता की जमीन को निजी संपत्ति के रूप में अपने को आवंटित कर लिया । ये जनता से संपत्तिहरण के अध्यादेश थे ।’ (वही)
मार्क्स ने बताया है कि 19 वीं सदी के पहले तीन दशकों में जमींदारों ने साझा जमीन से 3,511,770 एकड़ ‘चुरा’ लिया । (वही)
भूमि का सामुदायिक स्वामित्व इंग्लैंड और भारत दोनों में सामंती समय और उसके बाद भी बना रहा ।
भारत में जमीन पर सामुदायिक स्वामित्व के साथ जमीन पर निजी मालिकाना भी था । काणे ने धर्मशास्त्र के इतिहास में हिंदू कानून की किताबों से जमीन बेचने की अनुमति के अनेक उदाहरण दिए हैं । आर एन सालातोर ने लाइफ़ इन गुप्ता एज नामक किताब में अनेक शिलालेखों का उल्लेख किया है जिनमें गुप्त काल में बिक्रय पत्र का संकेत मिलता है । के पी जायसवाल ने हिंदू कानून की किताबों और शिलालेखों दोनों का उल्लेख करते हुए कहाप्राचीन साहित्य से व्यक्तियों द्वारा निजी तौर पर जमीन की बिक्री और दान के असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं । कानून की किताबों में भूमि की बिक्री और आदेश पर मालिकाने की प्राप्ति का प्रावधान है । शिलालेख पूरी तरह सिद्ध करते हैं कि भूमि का निजी स्वामित्व मौजूद था ।
6 जून 1863 को एंगेल्स ने मार्क्स को लिखा: ‘भू संपत्ति का अभाव असल में समूचे पूरब की कुंजी है ।’ (संकलित पत्र-व्यवहार) मार्क्स और एंगेल्स का यह तथा ऐसे ही अन्य वक्तव्य अक्सर इस सिद्धांत के समर्थन में उद्धृत किए जाते हैं कि भारत में जमीन पर निजी मालिकाना नहीं था ।
एंगेल्स के ऊपर उद्धृत पत्र के एक हफ़्ते बाद मार्क्स ने उन्हें जवाब दिया: ‘जहां तक संपत्ति का सवाल है भारत के बारे में अंग्रेज लेखकों में इस पर बहुत विवाद है । कृष्णा के दक्षिण में भ्रंश पहाड़ी देहात में लगता है कि भू संपत्ति मौजूद थी ।’ (वही) भारत में जमीन पर निजी मालिकाने का संदेह जाहिर करने वाले मार्क्स और एंगेल्स के इस तथा इसी तरह के अन्य वक्तव्यों की आम तौर पर उपेक्षा कर दी जाती है ।
भारतीय और उसी तरह इंग्लैंड के सामंती समाज में सामुदायिक संपत्ति के साथ निजी संपत्ति भी सामंती समय में मौजूद थी ।
सामंती भारत के अनेक भागों में विभिन्न राष्ट्रीयताओं के इलाके साफ पहचाने का सकते हैं । बुंदेलखंड, अवध, ब्रज आदि सामंती दौर के राष्ट्रीयताओं के इलाके हैं जो अब वृहत्तर हिंदी क्षेत्र के हिस्से हैं । इसी तरह कार्नवाल, वेल्स, स्काटलैंड आदि सामंती दौर के राष्ट्रीयताओं के इलाके हैं जो अब ब्रिटिश जनता के देशी भूभाग के हिस्से हैं । इनमें से कुछ हिस्सों में अलगाव के लिए आंदोलन जारी हैं ।
सामंती उत्पादन पद्धति का जन्म और विकास पुराने कबीलाई सामाजिक ढांचे में होता है । इसका जन्म और विकास ऐसे काल्पनिक सामाजिक ढांचे में नहीं होता जो दासों और दास मालिकों में विभाजित हो । परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता का उदय में एंगेल्स ने बताया है कि कैसे विभिन्न कबीलाई समुदायों का सामंतवाद में संक्रमण होता है । सही बात है कि एथेन्स और रोम में बहुत सारे दास थे । लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि एथेन्स या रोम के समाज दासों और दास मालिकों में विभाजित थे या ये समाज प्राक-सामंती समाज थे । असल में तो मनुष्यों की वस्तुओं की तरह खरीद फरोख्त हो सके इसके लिए उनकी खरीद और बिक्री के साधन- मुद्रा - को भरपूर विकसित होना चाहिए और उत्पादन पद्धति को इतना विकसित होना चाहिए कि उनकी श्रम शक्ति का उपयोग हो सके, ऐसा बाजार होना चाहिए जहां उनकी मेहनत की उपज आदि को बेचा जा सके । एंगेल्स ने एथेन्स में दासता के विकास के प्रसंग में ठीक इसी तरह की आर्थिक गतिविधि का वर्णन किया है ।
दासों की बड़ी संख्या की व्याख्या इस तथ्य से होती है कि उनमें से ढेर सारे दास एक साथ विशाल कमरों वाले कारखानों में ओवरसीयरों के मातहत काम करते थे । वाणिज्य और उद्योग के विकास के साथ संपत्ति का संचय और संकेंद्रण कुछेक हाथों में हुआ; स्वतंत्र नागरिकों की बड़ी आबादी गरीब थी और उन्हें या तो हस्तशिल्प के काम में दासों के साथ होड़ करनी पड़ती जिसे अधम और नीचतापूर्ण माना जाता था और उसमें सफलता बहुत कम निश्चित थी या फिर पूर्ण दरिद्रता का सामना करना पड़ता । तत्कालीन परिस्थितियों में दरिद्रता का ही मुख देखना पड़ता था और चूंकि वे बहुसंख्यक थे इसलिए अपने साथ समूचे एथेन्स के राज्य को नीचे गिरा देते थे ।’ (संकलित रचनाएं, भाग दो)
इससे हमारे सामने ऐसे प्राक-सामंती कबीले की तस्वीर नहीं उभरती जो सामुदायिक रूप से दासों पर शासन करता हो; यह ऐसे समाज की तस्वीर है जहां सामंतवाद न केवल परिपक्व है बल्कि उत्पादन और वितरण की विपरीत प्रक्रियाओं के साथ मौजूद है । बड़ा बाजार है, इसके प्रबंधन के लिए कारखाने हैं, दासों का सस्ता श्रम है, एथेन्स के स्वतंत्र नागरिकों का बड़े पैमाने पर दरिद्रीकरण हो रहा है । इस समाज में मुख्य अंतर्विरोध धनी और गरीब एथेन्सवासियों के बीच है; दरिद्र जनता की बहुसंख्या अपने साथ समूचे एथेन्स के राज्य को नीचे गिरा रही है ।
रोम में भी हालात अलग नहीं थे । 8 मार्च 1855 को मार्क्स ने एंगेल्स को लिखाकुछ दिन पहले मैंने रोम के (प्राचीन) इतिहास को आगस्तस के युग तक फिर पढ़ा । उसका आंतरिक इतिहास आम तौर पर छोटी बनाम बड़ी भू-संपत्ति के बीच संघर्ष में समाधित होता है, हां दासता की स्थिति के चलते किंचित बदलाव आते हैं ।’ यहां भी मुख्य अंतर्विरोध संपत्ति के छोटे और बड़े मालिकों के बीच है ।
आश्चर्य की बात नहीं कि यूरोपीय देशों द्वारा बड़े पैमाने पर दासों की खरीद बिक्री पुनर्जागरण (रिनेसां) और उसके बाद यानी व्यापारिक पूंजीवाद के दौर में हुई ।
सामंती भू-स्वामियों के बिना भी सामंतवाद संभव है । सामंती उत्पादन पद्धति नगर और देहात में छोटे पैमाने का उत्पादन है । जाति और वर्ण इस समाज के खास लक्षण हैं । संपत्ति का सामंती स्वामित्व अलग अलग रूपों में हो सकता है । निजी स्वामित्व के साथ साथ संपत्ति का सामुदायिक स्वामित्व भी रह सकता है । उत्पादन के साधन, बुर्जुआ अर्थों में, सामंत की संपत्ति नहीं होते । मार्क्स ने बताया है कि जमीन पर किसानों का भी ‘उतना ही सामंती अधिकार था जितना मालिक का’, इन्हीं किसानों को इन जमीनों से मालिकों ने भगाया । (पूंजी, खंड 1) नियम पूर्वक छोटे पैमाने पर उत्पादन वाले समाज में उत्पादन के साधनों पर उत्पादक का आंशिक या संपूर्ण स्वामित्व होता है; यही बात उसे आधुनिक सर्वहारा से अलगाती है । सामंती उत्पादन पद्धति दासों और दास मालिकों के समाज में परिपक्व नहीं होती है, बल्कि वह कबीलाई समाज में पैदा और परिपक्व होती है । जब कबीले विभाजित होकर फिर से एकजुट होते हैं तो नई राष्ट्रीयताओं का निर्माण होता है । इनमें नए श्रम विभाजन का प्रचलन होता है और लोगों की एकता कबीले की तरह रक्त-संबंध आधारित नातेदारी से नहीं बनती । सामंतवाद के बुनियादी लक्षण यूरोप और भारत में समान ही हैं ।       
                            


No comments:

Post a Comment