Friday, December 30, 2016

नया इंटरनेशनल


1877 में घेन्ट नगर में यूनिवर्सल सोशलिस्ट कांग्रेस संपन्न हुई । इसमें पहले कभी के मुकाबले अधिक देशों का प्रतिनिधित्व हुआ । नौ देशों (फ़्रांस, जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड, ब्रिटेन, स्पेन, इटली, हंगरी, रूस और बेल्जियम) के प्रतिनिधियों का लगभग 3000 मजदूरों ने स्वागत किया । इनमें से कुछ प्रतिनिधियों को किसी अन्य देश के संगठन का (डेनमार्क, संयुक्त राज्य और पहली बार ग्रीस तथा मिस्र के मजदूर समूहों) भी अतिरिक्त जनादेश हासिल था । इंटरनेशनल के डि पाएपे, लीबक्नेख्त, फ़्रांकेल, गिलौमे, हेल्स और अन्य ऐतिहासिक नेता उपस्थित थे और यूरोपीय मजदूर आंदोलन की एक समूची पीढ़ी के लिए संगठन के महत्व की गवाही दे रहे थे ।
डि पाएपे और आगामी बेल्जियन समाजवादी नेता लुई बरट्रांड (1856-1943) द्वारा लिखित समापन वक्तव्य ‘मेनिफ़ेस्टो टु वर्कर्स आर्गेनाइजेशंस ऐंड सोसाइटीज इन आल कंट्रीज’ में कांग्रेस ने ‘जनरल यूनियन आफ़ द सोशलिस्ट पार्टी’ स्थापित करने का आवाहन किया । बहुसंख्यक प्रतिनिधियों ने एक सहमति पत्र पर भी दस्तखत किया:
“चूंकि सामाजिक मुक्ति और राजनीतिक मुक्ति अविभाज्य हैं इसलिए सर्वहारा को संपत्तिशाली वर्गों की समस्त पार्टियों के विरोध में अलग पार्टी में संगठित होना चाहिए और उन सभी राजनीतिक साधनों से खुद को लैस करना चाहिए जो उसकी मुक्ति को प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक हों । चूंकि संपत्तिशाली वर्गों के प्रभुत्व के विरोध में चलने वाला संघर्ष का दायरा केवल स्थानीय या राष्ट्रीय होने की बजाए विश्व व्यापी होगा इसलिए इस संघर्ष में सफलता विभिन्न देशों के संगठनों की सामंजस्यपूर्ण और एकताबद्ध कार्यवाही पर निर्भर है । घेन्ट में यूनिवर्सल सोशलिस्ट कांग्रेस के निम्नहस्ताक्षरित प्रतिनिधि फैसला करते हैं कि जिन संगठनों का वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं वे संगठन आपसी औद्योगिक और राजनीतिक प्रयासों में एक दूसरे को भौतिक और नैतिक समर्थन देंगे ।
1871 के लंदन सम्मेलन के छह साल बाद घेन्ट की इस थीसिस ने सिद्ध किया कि मार्क्स महज समय से कुछ आगे रहे थे । क्योंकि उसी दस्तावेज में पुष्टि की गई:
हम आंदोलन, प्रचार, जन शिक्षा और एकजुटता के शक्तिशाली साधन के बतौर राजनीतिक कार्यवाही की जरूरत महसूस करते हैं । समाज के वर्तमान संगठन का मुकाबला चारों ओर से एकबारगी और उपलब्ध सभी साधनों से करना होगा ।----समाजवाद को भविष्य के संभावित सामाजिक संगठन के बारे में महज सैद्धांतिक अटकलबाजी नहीं होना चाहिए । इसे वास्तविक और जीवंत, ठोस आकांक्षाओं, तात्कालिक जरूरतों तथा सामाजिक पूंजी और सामाजिक सत्ता को नियंत्रित करने वालों के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के दैनिक संघर्षों से जुड़ा हुआ होना चाहिए ।
पूंजीपति वर्ग से राजनीतिक अधिकार छीन लेना, बिखरे हुए मजदूरों को किसी एसोसिएशन में संगठित करना, प्रतिरोध सोसाइटियों या हड़ताल की कार्यवाही के जरिए काम के घंटों में कमी कराना- यह सब नए समाज के निर्माण में हाथ बंटाना तो है ही, भविष्य की सामाजिक व्यवस्था के सिलसिले में सच्ची खोज में संलग्न होना भी है ।
अब तक असंगठित रहे मजदूरों को एकताबद्ध होने दें और संगठन बनाने दें ! जो लोग केवल आर्थिक धरातल पर संगठित हैं उन्हें राजनीतिक धरातल पर उतरने दें, वहां भी वही विरोधी और वही संघर्ष मिलेंगे तथा इनमें से एक धरातल पर हासिल जीत से दूसरे धरातल पर भी विजय की राह खुलेगी !”
प्रत्येक देश में सभी पूंजीवादी पार्टियों से अलग विशाल पार्टी के रूप में वंचित वर्ग को संगठित होने दें और इस सामाजिक पार्टी को अन्य देशों की वैसी ही सामाजिक पार्टी के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ने दें !”
अपने सभी अधिकारों पर दावा ठोंकने के लिए, समस्त विशेषाधिकारों के उन्मूलन के लिए दुनिया के मजदूरों एक हो !”
बाद के दशकों में मजदूर आंदोलन ने समाजवादी कार्यक्रम अपनाया, समूचे यूरोप में और उसके बाद सारे संसार में फैला और राष्ट्रोपरि समन्वय नए ढांचे बनाए । नामों की निरंतरता के अतिरिक्त (1889 से 1916 तक दूसरा इंटरनेशनल और 1919 से 1943 तक तीसरा इंटरनेशनल) भी इनमें से प्रत्येक ढांचे ने लगातार प्रथम इंटरनेशनल के मूल्यों और सिद्धांतों को याद रखा । इस तरह इसका क्रांतिकारी संदेश असाधारण रूप से उपजाऊ साबित हुआ और समय बीतने के साथ अपने जीवनकाल से भी महत्तर परिणामों को जन्म दिया ।
इंटरनेशनल ने मजदूरों को समझने में मदद की कि श्रम को एक देश में मुक्ति नहीं मिल सकती बल्कि यह वैश्विक लड़ाई है । इसने उनको यह भी अनुभूत कराया कि श्रमिक मुक्ति का यह लक्ष्य उन्हें किसी अन्य ताकत के सहारे प्राप्त करने की जगह संगठन की अपनी क्षमता के बल पर खुद ही हासिल करना है । और कि उन्हें पूंजीवादी उत्पादन पद्धति तथा मजूरी की दासता पर विजय प्राप्त करनी है क्योंकि मौजूदा व्यवस्था के भीतर सुधार के लिए लड़ना जरूरी तो है लेकिन इससे मालिकों के अल्पतंत्र पर उनकी निर्भरता नहीं समाप्त होगी- इस मोर्चे पर मार्क्स का योगदान बुनियादी महत्व का था ।
उस समय की उम्मीद और हमारे समय के अविश्वास के बीच अलंघ्य खाई है । इंटरनेशनल के युग की व्यवस्था विरोधी चेतना और एकजुटता तथा नवउदारवादी प्रतिद्वंद्विता और निजीकरण की बनाई हुई दुनिया के वैचारिक समर्पण और व्यक्तिवाद के बीच जमीन आसमान का अंतर आ गया है । 1864 में लंदन में एकत्र मजदूरों में राजनीतिक भावावेग, आजकल व्याप्त उदासीनता और अर्पण के पूरी तरह विपरीत था ।    

इसके बावजूद चूंकि श्रम की दुनिया उन्नीसवीं सदी जैसी शोषक परिस्थितियों की ओर लौट रही है इसलिए एक बार फिर इंटरनेशनल का प्रोजेक्ट असाधारण तौर पर प्रासंगिक हो गया है । आज कीविश्व व्यवस्थाकी बर्बरता, वर्तमान उत्पादन पद्धति जनित पारिस्थितिकीय विनाशलीला, चंद शोषक संपत्तिशालियों और विशाल दरिद्र बहुसंख्या के बीच बढ़ती दूरी, महिला उत्पीड़न, युद्ध की प्रचंड आंधी, नस्लवाद और अंधराष्ट्रवाद ने समसामयिक मजदूर आंदोलन के समक्ष इंटरनेशनल की दो मुख्य खूबियों के आधार पर खुद को संगठित करने की आवश्यकता पैदा कर दी है और वे खूबियां हैं ढांचे की विविधता और लक्ष्य की मूलगामिता । 150 साल पहले स्थापित संगठन के उद्देश्य आज और अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं । बहरहाल वर्तमान की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए नए इंटरनेशनल को दो बातें करनी ही होंगी- इसे बहुलतावादी होना होगा और इसे पूंजीवाद विरोधी होना होगा ।

No comments:

Post a Comment